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________________ जीवसमा सोमें भंगविचार १८३ विशेषार्थ -- यह तो पहले ही बतला आये हैं कि ज्ञानावरण और अन्तरायकी सब उत्तर प्रकृतियां ध्रुववन्धिनी, ध्रुवोदय और ध्रुवसत्ताक हैं। इन दोनों कर्मोकी सब उत्तर प्रकृतियो का अपने अपने विच्छेदके अन्तिम समय तक वन्ध, उदय और सत्य निरन्तर होता रहता है । श्रत प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोंमे ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृतियोके पाँच प्रकृतिक बन्ध, पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्व इन तीन विकल्परूप एक भंग प्राप्त होता है क्यो कि इन जीवम्थानो में से किसी जीवस्थानमे इनके बन्ध उदय और सत्त्वका विच्छेद नहीं पाया जाता । तथा अन्तिम पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे ज्ञानावरण और अन्तरायका बन्धविच्छेद पहले होता है तदनन्तर उदय और सत्त्व विच्छेद होता है । अत यहाँ पाँच प्रकृतिक वन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्त्व इस प्रकार तीन विकल्परूप एक भग होता है । तदनन्तर पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्व इस प्रकार दो विकल्परूप एक भाग होता है । किन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर इस जीवके भावमन तो रहता नहीं फिर भी द्रव्यमन पाया जाता है और इस अपेक्षा से उसे भी पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय कहते है । चूर्णिने भी कहा है brot 'मनकरण केवलियो वि श्रत्थि तेण सन्नियो बुच्चंति । मोविएगा पहुच ते सन्निणो न हवति ।" अर्थात् 'मन नामका करण केवलोके भी है इसलिये वे संज्ञी कहे जाते है किन्तु वे मानसिक ज्ञानकी अपेक्षा संज्ञी नहीं होते ।' इस प्रकार सयोगी और अयोगी जिनके पर्याप्त सज्ञी पंचेन्द्रिय सिद्ध हो जाने पर उनके तीन विकल्परूप और दो विकल्परूप भंग न प्राप्त होवें इस वातको ध्यान में रखकर गाथामें बतलाया है कि केवल द्रव्यमनकी अपेक्षा जो जीव पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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