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________________ १४० सप्ततिकाप्रकरण तथा बादर पर्यातको यशः कीर्ति के साथ कहने से एक भङ्ग' और प्राप्त होता है । इस प्रकार कुल भङ्ग पाँच हुए। वैसे तो उपर्युक्त २१ प्रकृतियोमें विकल्प रूप तीन युगल होनेके कारण २४२x२ = ८ भङ्ग प्राप्त होने चाहिये थे किन्तु सूक्ष्म और अपर्याप्तकके साथ यशः कीर्ति का उदय नहीं होता त यहाँ तीन भंग कम हो गये है । यद्यपि भवके अपान्तरालमे पर्याप्तियो का प्रारम्भ ही नहीं होता, फिर भी पर्याप्तक नाम कर्मका उदय पहले समय से ही हो जाता है और इसलिये अपान्तरालमे विद्यमान ऐसा जीव लब्धिसे पर्याप्त ही होता है, क्योकि उसके आगे पर्याप्तियो की पूर्ति नियमसे होती है । इन इक्कीस प्रकृतियो में औदारिक शरीर, हुण्डसस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक इन चार प्रकृतियोके मिला देने पर और तिर्यच गत्यानुपूर्वी इस एक प्रकृतिके निकाल लेने पर शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीवके चौवीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्वोक्त पाँच भङ्गोको प्रत्येक और साधारणसे गुणा कर देनेपर दस भङ्ग होते हैं । तथा वायुकायिक जीवके वैक्रिय शरीर को करते समय श्रदारिक शरीर के स्थानमे वैक्रिय शरीरका उदय होता है, अतः इसके चैक्रिय शरीर के साथ भी २४ प्रकृतियोका उदय कहना चाहिये । परन्तु इसके केवल बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और अयशः कीर्ति ये प्रकृतियाँ ही कहनी चाहिये और इसलिये इसकी अपेक्षा एक भङ्ग हुआ । तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवके साधारण और यश कीर्तिका उदय नहीं होता, अत वायुकायिकके इनकी अपेक्षा भङ्ग नही कहे । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल ग्यारह भङ्ग होते है । तदनन्दर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के वाद २४ प्रकृतियो में पराघात प्रकृतिके मिला देने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ बादर के प्रत्येक और साधारण तथा यशः }
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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