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________________ १३२ सप्ततिकाप्रकरण एक मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा होता है । दूसरा साम्बादन सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा होता है और तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि जीवोकी अपेक्षा होता है । इनमें से प्रारम्भके दो पहले के समान जानना चाहिये । श्रर्थात् जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि और माम्वादम्यष्टि के निर्यचप्रायोग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान वतला आये हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये । किन्तु यहां भी निर्यचगतिके योग्य प्रकृतियोको निकालकर उनके स्थानमें मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियां मिला देना चाहिये । तीसरे प्रकारके बन्धस्थानमे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, औदारिक धागोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वज्रभनाराचसंहनन, वर्णादिक चार, अगुरुलघु. उपघात पराघात, उच्छ्वास, प्रशन्तविहायोगति, त्रस, चादर, पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभ मेसे कोई एक, सुभग, सुस्वर, व्याडेय, यश कीर्ति और अयश कीर्ति से कोई एक तथा निर्माण इन उनतीस प्रकृतियोका बन्ध होता है । यहाँ तीनो प्रकार के उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान में सामान्यसे पूर्वोक्त प्रकार से ४६०८ भंग होते हैं । यद्यपि गुणग्धान भेदसे यहा भगोमें भेद हो जाता है पर गुणभ्थानभेदकी विवक्षा न करके यहां ४६०८ भग कहे गये है। तथा इसमे तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर तीस प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । इस बन्धस्थानमे स्थिर और अस्थिर मेसे किसी एकका, शुभ और अशुभसे किसी एकका तथा यश कीर्ति और यश कीर्तिमे से किसी एक्का बन्ध होता है । अत इन सब संख्याओ को परस्पर गुणित करने पर २x२x२=८ भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार मनुष्यगतिके योग्य २५, २९ और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानों में कुल भंग १+४६०८ + ८ = ४६१७ होते । कहा भी हैं ! I
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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