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________________ नामकर्मके वन्धस्थान १२५ २५ और २६ ये तीन बन्धस्थान होते हैं । उनमेंसे २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमे तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघातनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्म और वादर इनमें से कोई एक, अपर्याप्तक नाम, प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक, स्थिर, शुभ, दुर्भग, श्रनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण इन तेईस प्रकृतियोका बन्ध होता है । अत इन तेईस प्रकृतियोंके समुदायको एक तेईस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते है । यह चन्धस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य के होता है। यहाँ भंग चार प्राप्त होते है । यथा -- यह ऊपर वतलाया ही है कि बादर और सूक्ष्ममें से किसी एकका तथा प्रत्येक और साधारण मेसे किसी एकका बन्ध होता है । अब यदि किसीने एक बार वादरके साथ प्रत्येकका और दूसरी बार चादर के साथ साधारणका बन्ध किया । इसी प्रकार किसीने एक वार सूक्ष्मके साथ प्रत्येकका और दूसरी बार सूक्ष्मके माथ साधारणका बन्ध किया तो इस प्रकार तेईस प्रकृतिक वन्धस्थानमें चार भग प्राप्त हो जाते हैं । पश्चीम प्रकृतिक बन्धस्थानमें- तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, वाटर और सूक्ष्ममें से कोई एक, पर्याप्तक, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभसे कोई एक, यशःकीर्ति और यश कीर्तिमेसे कोई एक, दुभंग, नादेय और निर्माण इन पचीस प्रकृतियोका बन्ध होता है । 'अतः 'इन पच्चीस 'प्रकृतियोके' समुदायको एक पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते हैं। यह बन्धस्थान पर्याप्त
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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