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________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेध भंग १२१ लिप्रमाण शेष रहने पर वन्ध, उदय और उदीरणाकी एकसाथ व्युच्छित्ति हो जाती है और उसके बाद एक प्रकृतिक वन्ध होता है परन्तु उस समय संज्वलन मायाके एक श्रावलिप्रमाण प्रथम स्थिति गत दलिकको और दो समय कम दो आवलिप्रमाण समय प्रबद्धको छोडकर शेप सबका क्षय हो जाता है। यद्यपि यह शेप सत्कर्म भी दो समय कम दो श्रावलिप्रमाण कालके द्वारा क्षयको प्राप्त होगा किन्तु जब तक इमका क्षय नहीं हुआ है तब तक एक प्रकृतिक वन्धस्थान में दो प्रकृतिक सत्त्व पाया जाता है। पश्चात् इसका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक वन्धस्थान मे एक सज्वलन लोभका मत्त्व रहता है। इस प्रकार एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे २८, २४, २१, २ और १ ये पाँच सत्त्व स्थान होते हैं यह मिद्व हुआ। ___ अव बन्धके अभाव मे चार सत्त्वस्थान होते है इसका खुलासा करते हैं। बात यह है कि जो उपशमश्रेणि पर चढ़ कर सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके मोहनीयका वन्ध तो नहीं होता किन्तु उसके २८ २४ और २१' ये तीन सत्त्वस्थान सम्भव हैं। तथा जो नपकाणी पर आरोहण करके सूक्ष्म सम्प राय गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके एक सूक्ष्म लोभका ही सत्त्व पाया जाता है। अत सिद्ध हुआ कि चन्धके अभाव मे २८, २४ २१ और १ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। मोहनीय कर्मके वन्ध, उदय और सत्तास्थानोके अंगोका बापक कोष्ठक
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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