SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्धस्थानत्रिकके संवेध भंग १११ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा सम्यग्दृष्टि रहते हुए जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है, वह यदि परिणामोके वशसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। ऐसा जीव चारो गतियोंमें पाया जाता है, क्योंकि चारों गतियोका सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करता है । कर्मप्रकृतिमे कहा है 'चउगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संयोजणे विजोयति । करणेहिं ती हिं सहिया णंतरकरण उवसमो वा ।।' अर्थात् - 'चारो गतिके पर्याप्त जीव तीन करणोको प्राप्त होकर अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करते हैं किन्तु इनके अनन्तानुवन्धीका अन्तरकरण और उपशम नहीं होता है । विशेषता इतनी है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चारो गतिके जीव, देशविरतमें तिर्यच और मनुष्य जीव तथा सर्वविरतमे केवल मनुष्य जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना करते हैं।' अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करनेके पश्चात् कितने ही जीव परिणामोके वशसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको भी प्राप्त होते हैं इससे सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोके चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, परन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके सात प्रकृ तिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४, २३, २२ और २१ ये पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। इनमें से २८ और २४ तो उपशम जीव वेदकसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो सकता है पर यह काल सम्ययत्वको उद्वलनाके चालू रहते ही निकल जाता है । अत वहाँ २७ प्रकृत्तियों की सत्तावालेको न तो वेदक सम्यक्त्वकी प्राप्ति बतलाई है और न सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानकी प्राप्ति मतलाई है । (१) कर्म प्र० उप० गा० ३१ - १
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy