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________________ सप्ततिकाप्रकरण नवपंचाणउइसएहुदयविगप्पेहिँ मोहिया जीवा । अर्थ संसारी जीव नौ सौ पंचानवे उदय विकल्पोसे मोहित हैं। विशेषार्थ--इससे पहलेकी चार गाथाओमे मोहनीय कर्मके उदयस्थानोके भंग वतला आये है। यहाँ 'उदयविकल्प' पदद्वारा उन्होंका ग्रहण किया है। किन्तु पहले उन उदयस्थानोंके भंगोकी कहां कितनी चौवीसी प्राप्त होती हैं यह बतलाया है। अव यहाँ यह बतलाया है कि उनकी कुल संख्या कितनी होती है। प्रत्येक चौवीसीमें चौबीस भंग हैं और उन चौबीसियोंकी कुल सख्या इकतालीस है अत. इकतालीसको चौबीससे गुणित कर देने पर नौ सौ चौरासी प्राप्त होते हैं। किन्तु इस सख्यामें एक प्रकृतिक उदयस्थानके भग सम्मिलित नहीं हैं जो कि ग्यारह हैं। अतः उनके और मिला देने पर कुल संख्या नौ सौ पंचानवे होती, है। संसारमें दसवे गुणस्थान तकके जितने जीव है उनमेसे प्रत्येक जीव के इन ९९५ भगोमेसे यथासम्भव किसी न किसी एक भंग का उदय अवश्य है जिससे वे निरन्तर मूच्छित हो रहे हैं। यही सबब है कि ग्रन्थकारने सब संसारी जीवोको इन उदय विकल्पोसे मोहित कहा है। जैसा कि हम ऊपर वतला आये हैं यहाँ जीवोंसे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तकके जीव ही लेना चाहिये, क्योकि मोहनीय कर्मका उदय वहीं तक पाया जाता है। यद्यपि उपशान्तमोही जीवोका जव स्वस्थानसे पतन होता है तब वे भी इस मोहनीयके झपेटेमे आ जाते है, किन्तु कमसे कम एक समय के लिये और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तके लिये वे मोहनीयके उदयसे रहित हैं अत. उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया। (१) बठबन्धगे वि बारस दुगोदया जाण तेहि छुढेहिं । वन्धगभेएणेव, पचूणसहस्समुदयाण ॥'-पञ्चसं० सप्तति० गा० २९ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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