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________________ ७८ सप्ततिकाप्रकरण इनमें हास्य-रतिरूप एक एक भंग ही पाया जाता है। इस स्थानमे से हास्य, रति, भय और जुगुप्साके कम कर देने पर पाँच प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । यहाँ एक ही भग है, क्योकि इसमे बंधनेवाली प्रकृतियोमें विकल्प नहीं है। इसी प्रकार चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बन्धस्थानोमे भी एक एक ही भंग होता है। इस प्रकार मोहनीय कर्मके दस वन्धस्थानोके कुल भग ६+४+२+२+२+ १+१+१+१+१=२१ होते हैं, यह उक्त गाथाका तात्पर्य है। ___अब इन बन्धस्थानोंमे से किसमे कितने उदयस्थान होते हैं, यह बतलाते हैं दस बावीसे नव इकवीस सत्ताइ उदयठाणाई । छाई नव सत्तरसे तेरे पंचाइ अहेव ॥ १५ ॥ अर्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे सातसे लेकर दस तक, इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें सातसे लेकर नौ तक, सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थानमे छ. से लेकर नौ तक और तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें पॉचसे लेकर आठ तक प्रकृतियोका उदय जानना चाहिये । विशेपार्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके रहते हुए सात प्रकतिक, आठ प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक और दस प्रकृतिक ये चार उदय स्थान होते हैं। इनमे से पहले सात प्रकृतिक उदयस्थान को दिखलाते हैं-एक मिथ्यात्व, दूसरी हास्य, तीसरी रति, अथवा हास्य और रतिके स्थानमे अरति और शोक, चौथी तीन वेदोमेसे कोई एक वेद, पाँचवीं अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिमें से कोई एक, छठी प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिमे से कोई एक और सातवीं संज्वलन क्रोध आदिमे से कोई एक इन सात प्रकृतियोका उदय वाईस प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके नियम
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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