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________________ सप्ततिकाप्रकरण अब सबसे पहले वन्धस्थानोमें भंगोका निरूपण करते हैंछब्बावीसे चउ इगवीसे सत्तरस तेरसे दो दो। नववंधगे वि दोन्नि उ एक्केक्कमओ परं भंगा ॥ १४ ॥ अर्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके छः भंग हैं। इकीस प्रकृतिक वन्धस्थानके चार भंग हैं। सत्रह और तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानके दो दो भग हैं। नौ प्रकृतिक वन्धस्थानके भी दो भंग है, तथा इसके आगे पॉच प्रकृतिक आदि बन्धस्थानोमें से प्रत्येक का एक एक भंग है। विशेपार्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमें मिथ्यात्व, सोलह कपाय, तीनों वेदोमे से कोई एक वेद, हास्य-रति युगल और अरतिशोकयुगल इन दो युगलोमें से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा इन वाईस प्रकृतियोका ग्रहण होता है। यहाँ छः भंग होते हैं। उनका खुलासा इस प्रकार है-हास्य-रतियुगल और अरति-शोक युगल इन दो युगलोमे से किसी एक युगलके मिलाने पर वाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है, अतः दो भंग तो ये हुए और ये दोनो भंग तीनो वेदोंमें विकल्पसे प्राप्त होते हैं, अतः दोको तीनसे गुणित कर देने पर छ. भंग हो जाते हैं। इसमे से मिथ्यात्वके घटा देने पर इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पुरुपवेद और स्त्रीवेद इन दो वेदोमें से कोई एक वेद ही (१) छब्बावीसे चदु इगिवीसे दो हो हवं ति छठो ति। एक्ककमदो भगो वंधट्ठाणेसु मोहस्स ॥'-गो० कर्म० गा० ४६७ ॥ (२) 'हासरइभरहसोगाण बंधया प्राणव दुहा सव्वे । वेयविभज्जता पुण दुगइगवीसा छहा चउहा ।।'-पञ्चस० सप्नति गा० २० ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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