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________________ मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थान अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो जाने पर चौबीस प्रकृ. तिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। यह स्थान तीसरे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक पाया जाता है। इसका जघन्य काल अन्तमुहर्त है, क्योंकि जिम जीवने अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना करके चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त किया है वह यदि सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मिथ्यान्वका क्षय कर देता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है। तथा इसका उत्कृष्ट काल एकसौ वत्तीस सागर है, क्योंकि अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करने के बाद जो वेदक सम्यग्दृष्टि छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा, फिर अन्तमुहर्तके लिये सम्यग्मिथ्यावृष्टि हुआ। इसके वाट पुनः छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यग्दृष्टि रहा। अनन्तर मिथ्यात्वकी क्षपणा की । इस प्रकार अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना होनेके समयसे लेकर मिथ्यात्वकी क्षपणा होने तकके कालका योग (१) कपायप्रामृतकी चूर्णिमें २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ वत्तीस सागर बतलाया है। यथा 'चउत्रीमविहत्ती केवचिर कालादो ? जहण्णेण श्रतोमुहत्त, उकस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । इसका खुलासा करते हुए जयधवला टीकामें लिखा है कि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके जिसने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की। अनन्तर छयासठ मागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा। फिर अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिच्यादृष्टि रहा। पुन छ्यासठ सागर काल तक वेदक सम्यग्दृष्टि रहा। अनन्तर मिथ्यात्वकी क्षपणा की। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो चुकनेके समयसे लेकर मिथ्यात्वकी क्षपणा होने तकके कालका योग साधिक एक सी बत्तीस सागर होता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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