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________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान प्रकृतियोकी सत्तावाला ही रहता है, अत. सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काले पल्यके असख्यातवे भाग प्रमाण कहा। इसमेसे उद्वलना द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके घटा देने पर छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तात्पर्य यह है कि छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होता। यह स्थान भी मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है। कालकी अपेक्षा इस स्थानके तीन भग हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से अनादि अनन्त विकल्प अभव्योंके होता है, क्योंकि उनके छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका आदि और अन्त नहीं पाया जाता । अनादि-सान्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवके छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान आदि रहित है पर जब वह सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है, तब उसके इस स्थानका अन्त देखा जाता है। तथा सादि-सान्त विकल्प सादि मिथ्यादृष्टि जीवके होता है, क्योकि अट्ठाईस प्रकृ (१) पचसग्रहके सप्ततिका सग्रह की गाथा ४५ की टीकामें लिखा है कि २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वकी पत्यके अमख्या तवें भागप्रमाण कालके द्वारा उद्वलना करके २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो जाता है तभी वह मिथ्यात्वका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि होता है । अतः इसके अनुसार २७ प्रकृतिक सत्तास्थानका काल पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। किन्तु जयघवला में २७ प्रकृतियोंकी सत्ता वाला भी उपशम सम्यग्दृष्टि हो सकता है ऐसा लिखा है। कषायप्रामृतकी चूर्णिसे भी इसकी पुष्टि होती है। तदनुसार २७ प्रकृतिक सत्तास्थानका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है ? क्योंकि २५ प्रकृतिक सत्तास्थान के प्राप्त होनेके दूसरे समयमें ही जिसने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है उसके २७ प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय तक ही देखा जाता है। ,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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