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________________ मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थान ६७ करके सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका उत्कृष्ट काल पल्येके असल्यातवे भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है। ऐसा जीव यद्यपि मिथ्यात्वमे न जाकर क्षपकश्रेणी पर भी चढ़ता है और सत्तास्थानोको प्राप्त करता है पर इससे उक्त उत्कृष्ट काल नही प्राप्त होता, अत यहाँ उसका उल्लेख नही किया । इसमें से सम्यक्त्व प्रकृतिकी ( १ ) पञ्चसग्रह के सप्ततिकास ग्रहकी गाथा ४५ व उसकी टीका २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पल्यका असख्यातवां भाग अधिक १३२ सागर बतलाया है। किन्तु दिगम्बर परम्परा में इसका उत्कृष्ट काल पत्यके तीन सख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर बतलाया है । इस मत भेदका कारण यह है कि श्वेताम्बर परम्परामें २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि ही मिथ्यात्व का उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है ऐसी मान्यता है तदनुसार केवल सम्यक्त्वको उद्वलनाके अन्तिम कालमें नीव उपशमसम्यक्त्वको नही प्राप्त कर सकता है। अत यहां २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पत्यका असख्यातर्वा भाग अधिक १३२ सागर ही प्राप्त होता है क्योंकि जो २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा । पश्चात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि हुआ। तत्पश्चात् पुनः ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा। और अन्त में जिसने मिथ्यादृष्टि होकर पल्यके श्रसख्यातवें भाग काल तक सम्यक्त्वकी उद्दलना की। उसके २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका इससे अधिक काल नहीं पाया जाता, नियम २७ प्रकृतिक सत्तास्थानवाला हो जाता है । क्योंकि इसके बाद वह किन्तु दिगम्बर परम्परामें यह मान्यता है कि २६ र २७ प्रकृतियों की सत्तावाला मिध्यादृष्टि तो नियमसे उपशम सम्यक्त्वको ही उत्पन्न करता है किन्तु २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला वह जीव भी उपशम सम्यक्त्वको ही
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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