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________________ सप्ततिकाप्रकरण नौ प्रकृतिक बन्धस्थान प्राप्त होता है। यद्यपि अरति और शोक, का बन्ध छठे गुणस्थान तक ही होता है तो भी सातवे और आठवे गुणस्थानमें इनकी पूर्ति हास्य और रतिसे हो जाती है, अत. सातवे और आठवे गुणस्थानमें भी नौ प्रकृतिक वन्धस्थान वन जाता है। इस वन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्पप्रमाण है। यद्यपि छठे, सातवें और आठवे गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं है फिर भी परिवर्तन क्रमसे छठे और सातवे गुणस्थानमें एक जीव देशोन पूर्वकोटि वर्प प्रमाण काल तक रह सकता है, अत. नौ प्रकृतिक बन्धस्थान का उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका वन्ध आठवे गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही होता है, अतः पूर्वोक्त नौ प्रकृतियोंमे से इन चार प्रकृतियोंके घटा देने पर अनिवृत्ति वादरसम्पराय गुणस्थानके प्रथम भागमे पाँच प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। दूसरे भागमे पुरुप वेदका वध नहीं होता, अत वहाँ चार प्रकृतिक वधस्थान होता है। तीसरे भागमें क्रोवसज्वलनका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ नीन प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। चाये भागमें मानसंज्वलनका वन्ध नहीं होता, अतः वहाँ दो प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और पांचवे भागमें मायासंज्वलनका बन्ध नहीं होता, अत. वहाँ एक प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस प्रकार अनिवृत्ति वादरसंपराय गुणस्थानके पॉच भागोमे पाँच प्रकृनिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृनिक ये पाँच वन्धस्थान होते हैं। इन सभी बन्धस्थानोंका जघन्य काल एक ममय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि प्रत्येक भागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसके आगे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमें एक प्रकतिक बन्धस्थानका भी अभाव है, क्योंकि वहाँ मोहनीय कर्मके
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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