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________________ ५४ सप्ततिकाप्रकरण नियमके कुछ अपवाद है। बात यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्च गोत्रकी उछलना भी करते हैं। अतः ऐसे जीवों में से जिन्होने उच्च गोत्रकी उद्वलना कर दी है उनके या जब ये जीव अन्य एकन्द्रियादिमे उत्पन्न हो जाते हैं तब उनके भी कुछ कालतक केवल एक नीच गोत्रकी ही सत्ता पाई जाती है। इसी प्रकार अयोगिकेवली जीव भी अपने उपान्त्य समयमे नीच गोत्रकी क्षपणा कर देते हैं अत उनके अन्तिम समयमै केवल उच गोत्रकी ही सत्ता पाई जाती है। इतने विवेचनसे यह निश्चित हुआ कि गोत्रकर्म की अपेक्षा बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयम्थान भी एक प्रकृतिक ही होता है किन्तु सत्त्वस्थान कहीं दो प्रकृतिक होता है और कहीं एक प्रकृतिक होता है। अब इन स्थानोके संवेधभग वतलाते हैं-गोत्रकर्मकी अपेक्षा (१) नीच गोत्रका बन्ध, नीच गोत्रका उदय और नीच गोत्रका सत्त्व (२) नीच गोत्रका वन्ध, नीचगोत्रका उदय और नीचउचगोत्रका सत्त्व (३) नीचगोत्रका वन्ध, उच्चगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्व (४) उच्चगोत्रका वन्ध, नीचगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व (५) उच्चगोत्रका वन्ध, उच्चगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व (६) उच्चगोत्रका उदय और (१) 'उचुव्वेलिदतेज वाउम्मि य णोचमेव सत्त तु। सेसिगिवियले सयले णीचं च दुगं च सत्त तु ॥ उच्चुलिदतेक वाऊ सेसे य वियलसय. लेसु । उप्पण्णपढमकाले रणीचं एवं हवे सत्त ॥-गो० कर्म. गा. ६३६, ६३७ । (२) वधइ जइण्णय चि य इयर वा दो वि सत चऊ भंगा। नोएसु तिसु वि पढमो अवधगे दोणि उच्चुदए ॥ पञ्चसं० सप्तति० गा० १६ । 'मिच्छादि गोदभगा पण चदु तिसु दोणि अठाणेसु । एक्कका जोगिजिणे दो भंगा हॉति णियमेण ॥ गो० क्रम० गा० ६३८।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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