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________________ ४७ आयुकर्मके संवैध भंग तिर्यंचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सत्त्व तथा (४) देवायुका वन्ध, तिथंचायुका उदय और देव-तिर्यंचायुका सत्त्व ये चार भग होते हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होता है, क्योकि मिथ्यारष्टि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र नरकायु का बन्ध नहीं होता। दूसरा भंग मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे होता है, क्योंकि तिथंचायुका बन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सावादन गुणस्थान तक ही होता है, क्योकि तियेच जीव मनुष्यायुका वन्ध मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे ही करते हैं, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थानमे नहीं। तथा चौथा भंग सम्यग्मिथ्यावष्टि गुणस्थानको छोड़कर देशविरतगुणस्थान तक चार गुणस्थानोमें होता है, क्योकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें आयु कर्मका वन्ध ही नहीं होता। तथा उपरतबन्धकालमे (१) तिर्यचायुका उदय और नरक-तिर्यंचायुका सत्त्व (२) तिर्यंचायुका उदय और तिर्यंच-तिर्यंचायुका सत्त्व (३) तिर्यंचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सत्त्व तथा (४) तिर्यंचायुका उदय और देव-तिर्यंचायुका सत्त्व ये चार भंग होते हैं। ये चारो भग प्रारम्भके पांच गुणस्थानोंमें होते हैं, क्योकि जिस तिर्यंचने नरकायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायुका वध कर लिया है उसके द्वितीयादि गुणस्थानोका पाया जाना सम्भव है । इस प्रकार तियंचगतिमें अवन्ध, चन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा आयुके कुल नौ भंग होते हैं।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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