SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका प्रकरण व सकलन रूप जितना भी कमसाहित्य लिखा गया है उसका जनक उपर्युक्त साहित्य ही है । मूल साहित्य में सप्ततिकाका स्थान - जैसा कि हम पहले वतला आये हैं कि वर्तमान में ऐसे पांच ग्रन्थ माने गये हैं जिन्हें कर्मविषयक मूल साहित्य कहा जा सकता है। उनमें एक ग्रन्थ सप्ततिका भी है । सप्ततिकामें अनेक स्थलों पर मतभेदोंका निर्देश किया है। एक Hare aafarner और पदवृन्दोंकी संख्या बतलाते समय आया है और दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थानमें नामकर्मकी कितनी प्रकृतियोंका मन्त्र होता है इस सिलसिले में आया है। इससे ज्ञात होता है कि जब कर्मविषयक अनेक मतान्तर प्रचलित हो गये थे तब इसकी रचना हुई होगी । 1 तथापि इसकी प्रथम गाथामें इसे दृष्टिवाद अंगकी एक बूँदके समान बतलाया है । और इसकी टीका करते हुए सभी टीकाकार श्रमायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तु के चौथे प्राभृतसे इसकी उत्पत्ति मानते हैं, इसलिये इसको मूल साहित्य में परिगणना की गई है। सप्ततिका की थोड़ी सी गाथाओं में कर्म साहित्यका समग्र निचोड़ भर दिया है । इस हिसाब से जब हम विचार करते हैं तो इसे मूल साहित्य कहने के लिये हो जी चाहता है । २ - सप्ततिका व उसकी टीकाएँ नाम - प्रस्तुत प्रन्थका नाम सप्ततिका है । गाथाओं या श्लोकोंकी संख्या के आधारसे ग्रन्थका नाम रखनेकी परिपाटी प्राचीन कालमे चली (१) देखो गाथा १९, २० व उनकी टीका । (२) देखो गाथा ६६, ६७ २६८ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy