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________________ मूल कर्मोंके गुणस्थानोमें संवैध भंग २३ विशेपार्थ-मोह और योगके निमित्तसे जो दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप आत्माके गुणोकी तारतम्यरूप अवस्थाविशेप होती है उसे गुणस्थान कहते हैं। यहाँ गुणसे दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप जीवके स्वभाव लिये गये है और स्थानसे उनकी तारतम्यरूप अवस्थाओका ग्रहण किया है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके तथा योगके रहते हुए जिन मिथ्यात्व आदि परिणामोके द्वारा जीवोका विभाग किया जाता है, उन परिणामोको गुणस्थान कहते हैं। वे गुणस्थान चौदह हैं-मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादर, सूक्ष्मसम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगि केवली और अयोगिकेवली। इनमें से प्रारम्भके वारह गुणस्थान मुख्यतया मोहनीय कर्मके निमित्तसे होते हैं, क्योकि इन गुणस्थानी का विभाग इसी अपेक्षासे किया गया है। तथा सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दो गुणस्थान योगके निमित्तसे होते हैं, क्योकि सयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका सद्भाव और अयोगिकेवली गुणस्थानमे योगका अभाव लिया गया है। इनमेंसेसम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थानको छोडकर प्रारम्भके अप्रमत्तसयत तक के छ. गुणस्थानोमें आठ प्रकृतिकवन्ध,आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा सात प्रकृतिकवन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग होते हैं। यहाँ पहला भग आयुकर्मके वन्धके समय होता है और दूसरा भंग आयुकर्मके वन्धकालके सिवा सर्वदा
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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