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________________ प्रारम्भ के ताठ प्रकृतिक समातिक सत्त्व मूल कर्मोंके जीवस्थानीमे सवेध भग सत्तहवंधश्रदयसंत तेरससु जीवठाणेसु । __ एगम्मि पंच मंगा दो भंगा हुँति केवलिणो ॥ ४ ॥ अर्थ प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानो मे सात प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा आठ प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उदय ओर आठ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग होते है। सबी पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थानमे प्रारम्भके पॉच भग होते है, तथा केवली जिनके अतके दो भग होते है। विशेपार्थ यद्यपि जीव अनन्त हैं और उनकी जातियाँ मो बहुत हैं। फिर भी जिन समान पर्यायरून धर्मोके द्वारा उनका सग्रह किया जाना है, उन्हें जीवस्थान या जीवसमास कहते है। ऐसे धर्म प्रकृतमे चौदह विवक्षित हैं, अत इनकी अपेक्षा जीवस्थानोके भी चौदह भेट हो जाते है। यथा--अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त वादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त तीन इन्द्रिय, पर्याप्त तीन इन्द्रिय, अपर्याप्त चार इन्द्रिय, पर्याप्त चार इन्द्रिय, अपर्याप्त असज्ञो पचेन्द्रिय, पर्याप्त असनो पचेन्द्रिय, अपर्याप्त सजी पचेन्द्रिय और पर्याप्त सजी पचेन्द्रिय । इनमेसे प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोमे दो भग होते हैं, क्योंकि इन जीवोके दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयकी उपशमना. या क्षपणा करनेकी योग्यता नहीं पाई जाती, अतः इनके अधिकतर मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । यद्यपि इनमेसे कुछके सास्वादन गुणस्थान भी सम्भव है फिर भी उससे भगोमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इन जीवसमासों में जो दो भंग होते है, उनका उल्लेख गाथामे ही किया है। इन दो भगोमें से सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्व यह
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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