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________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला . सिंघीजीये मारी प्रेरणाथी, 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' नी स्थापना साँथे, जैन साहित्यना उत्तमोत्तम ग्रन्थरनोने आधुनिक शास्त्रीय पद्धतिये सुन्दर रीते संशोधित-संपादित करी-करावी प्रकट करवा माटे अने तेम करी जैन साहित्यनी सार्वजनिक प्रतिष्ठा स्थापित करवा माटे, आ "सिंघी जैन ग्रन्थमाळा' प्रकट करवानी विशिष्ट योजनानो पण खीकार कर्यो। अने ए माटे आवश्यक अने अपेक्षित अर्थव्यय करवानो उदार उत्साह प्रदर्शित कर्यो: प्रारंभमां, शान्तिनिकेतनने लक्षीने एक ३ वर्षनो कार्यक्रम घडी काढवामां आव्यो अने ते प्रमाणे त्यां कामनो प्रारंभ करवामां आव्यो. परंतु ए ३ वर्षना अनुभवना अंते शान्तिनिकेतन मने मारा पोताना कार्य अने स्वास्थ्यनी दृष्टिये बराबर अनुकूळ न लागवाथी, अनिच्छाए मारे ए स्थान छोडg पज्युं अने अमदाबादमा, गुजरात विद्यापीठ ना सामिप्यमां, 'अने कान्त विहार' बनावी त्यां आ कार्यनी प्रवृत्ति चालु राखी. आ ग्रन्थमाळामां प्रकट थएला ग्रन्थोनी उत्तम प्रशंसा, प्रसिद्धि अने प्रतिष्टा थएली जोईने सिंधीजीनो उत्साह खूव वघ्यो अने तेमणे ए अंगे जेटलो खर्च थाय तेटलो खर्च करवानी अने जेम वने तेम वधारे संख्यामां ग्रन्थो प्रकट थएला जोवानी पोतानी उदार मनोवृत्ति मारी आगळ वारंवार प्रकट करी. हूँ पण तेमना एवा अपूर्व उत्साहथी प्रेराई यथाशक्ति आ कार्यने वधारे ने वधारे वेग आपवा माटे प्रयत्नवान् रहेतो. '. सन १९३८ ना जुलाईमा, मारा परम सुहृद् स्नेही श्रीयुत कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशीनो-जेओ ते वखते मुंबईनी कॉग्रेस गवन्मेंटना गृहमंत्रीना उच्च पद पर अधिष्ठित हता-अकस्मात् एक पत्र मने मळ्यो जेमा एमणे सूचन्युं हतुं के 'सेठ मुंगालाल गोएनकाए बे लाख रूपियानी एक उदार रकम एमने सुप्रत करी छे जेनो उपयोग भारतीय विद्याओना कोई विकासात्मक कार्य माटे करवानो छे अने ते माटे विचार-विनिमय करवा तेम ज तदुपयोगी योजना घडी काढवा अंगे मारी जरूर होवाथी मारे तरत मुंबई आवq विगेरे'. तदनुसार हुँ तरत मुंबई आव्यो अने अमे बन्ने य साथे बेसी ए योजनानी रूपरेखा तैयार करी; अने ते अनुसार, संवत् १९९५ नी कार्तिक सुदि पूर्णिमाना दिवसे श्री मुंशीजीना निवासस्थाने 'भारतीय विद्याभवन' नी एक म्होटा समारंभ साथे स्थापना करवामां आवी. भवनना विकास माटे श्रीमुंशीजीनो अथाग उद्योग, अखंड उत्साह अने उदार भात्मभोग जोई, मने पणे एमना कार्यमां यथायोग्य सहकार आपवानी पूर्ण उत्कंठा थई अने हुं तेनी आंतरिक व्यवस्थामा प्रमुखपणे भाग लेवा लाग्यो. भवननी विविध प्रवृत्तियोमा साहित्य प्रकाशन संबंधी जे एक विशिष्ट प्रवृत्ति खोकारवामां आवी हती ते, मारा आ ग्रंथमाळानां कार्यसाथे, एक प्रकारे परस्पर सहायक खरूपनी ज प्रवृत्ति होवाथी, मने ए पूर्व-अंगीकृत कार्यमा बाधक न थतां उलटी साधक ज जणाई अने तेथी में एमां यथाशक्ति पोतानी विशिष्ट सेवा आपवानो निर्णय कर्यो. सिंघीजीने ए वधी वस्तुस्थितिनी जाण करवामां आवतां तेओ पण भवनना कार्यमा रस धरावता थया अने एना संस्थापक सदस्य वनी एना कार्य मांटे पोतानी पूर्ण सहानुभूति प्रकट करी. जेम में उपर जणाव्युं छे तेम, ग्रंथमाळाना विकास माटे सिंघीजीनो उत्साह अत्यंत प्रशंसनीय हतो अने तेथी हुँ पण मारा खास्थ्य विगेरेनी कशी दरकार राख्या बंगर, ए कार्यनी प्रगति माटे सतत प्रयत्न कर्या करतो हतो. परंतु प्रन्थ.माळानी व्यवस्थानो सर्व भार, मारा एकलाना पंड उपर ज आश्रित थईने रहेलो होवाथी, मारुं शरीर ज्यारे ए व्यवस्था करतुं अटकी जाय, त्यारे एनी शी स्थिति थाय तेनो विचार पण मने वारंवार थयां करतो हतो. बीजी बाजु सिंधीजीनी . पण उत्तरावस्था होई तेओ वारंवार अखस्थ थवा लाग्या हंता अने तेओं पण जीवनंनी अस्थिरतानो आभासं अनुभववा लाग्या हता. एटले ग्रन्थमाळाना भावी विषे कोई स्थिर अने सुनिश्चित योजना घंडी काढवानी कल्पना हु कर्या करतो हतो. भवननी स्थापना थयां पछी ३-४ वर्षमा ज एना कार्यनी विद्वानोमां सारी पेठे प्रसिद्धि अने प्रतिष्ठा जामवा लागी हती भने विविध विषयना अध्ययन-अध्यापन अने साहित्यना संशोधन संपादनहुँ कार्य सारी पेठे आगळ वधवा लाग्यं हवं, 'जोई सहदर श्रीमंशीजीनी खास आकांक्षा थई के सिंघी जैन ग्रन्थमाळानी कार्यव्यवस्थानो संबंध पण.जो भवन साथे जोडी 'देवामां आवे तो तेथी परस्पर नेना कार्यमां सुंदर अभिवृद्धि थवा उपरांत ग्रन्थमाळाने स्थायी स्थान मळशे अने भवनने विविध प्रकारनी प्रतिष्ठानी प्राप्ति थशे; अने एरीते भवनमा जैन शास्त्रोना अध्ययनर्नु अने जैन सहित्यना प्रकाशन- एक अद्वितीय केन्द्र बनी रहेशे. श्रीमुंशीजीनीए शुभाकांक्षा, ग्रन्थमाळा विषेनी मारी भावी चिंतानी योग्य निवारक लागी अने तेथी ते विषेनी योजनानो विचार करवा लाग्यो.यथावसर सिंधीजीने में श्री मुंशीजीनी आकांक्षा अने मारी योजना सूचित करी. तेओ भा. वि. भ. ना स्थापक सदस्य हताज अने तदुपरान्त श्रीमुशीजीना खास स्नेहास्पद मित्र पण हता; तेथी तेमने पण ए योजना वधावी लेवा लायक लागी. पण्डितप्रवर श्रीसुखलालजी जेओ आ अन्यमाळाना आरंभथी ज अंतरंग हितचिंतक अने सक्रिय सहायक रह्या छे तेमनी साथे पण ए योजना संबंधे में उचितपरामर्श कर्यों अने संवत् २००१ ना वैशाख सुदिमां (मे सन १९४३) सिंघीजी कार्यप्रसंगे मुंबई आवेला सारे, परस्पर निर्णीत विचार-विनिमय करी, आ ग्रन्थमालानी 'प्रकाशनसंबंधी सर्व व्यवस्था भवनने खाधी न करवामां आवी. सिंघीजीए, ए उपरान्त, ते अवसरे मारी प्रेरणाथी, भवनने
SR No.010638
Book TitleDharmabhyudaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1949
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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