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________________ २२-२-६० दोपहर के साढे बारह बजे हैं। अभी अभी दस मिनट पहले ही हम दस मील चलकर दुलरासर पहुचे है । फाल्गुन का महीना और राजस्थान का यह वालुमय प्रदेश । ऊचे ऊचे टीबो पर उतरने और चढने में कितना कष्ट होता है, यह जानने वाले ही जान सकते हैं । ऊपर से सूर्य तो तपता ही है, पर उसके प्रचण्ड-ताप को देखकर धरती भी तप्त हो जाती है। धरती यहा की नवनीत की भाति अति सुकोमल है। पैर रखते ही मानो फूलो की शैया पर पड़ता है। पर उसकी भी आखिर एक सीमा होती है। सीमा से अतिक्रान्त होकर फूलो पर चलना भी असुहाना हो जाता है । जव पैर वालु पर पड़ते है तो २ इच अन्दर गड़ जाते है । अतिगय मृदुता भी आखिर क्लेशकारक बन जाती है । वार-वार पैरो के निकालने मे ही इतना समय और शक्ति लग जाती है जितनी अगला कदम रखने मे लगती है। ऐसी स्थिति मे भी आचार्यश्री एक साथ दस मील चलकर आए थे। उन्हे इतने-इतने लम्बे विहार करने की क्या आवश्यकता थी? क्या वे किन्ही मठाधीशो की भाति अपना मठ बनाकर आराम से नहीं रह सकते ? क्या वे भी अन्य जैन मुनियो की भाति नवकल्पी विहार नही कर सकते ? पर बहुजन कल्याण की भावना का सदेश लेकर चलने वाला व्यक्ति मठाधीश और नवकल्पिक ही कैसे रह सकता है ? उसे तो सारे ससार को ही अपना मठ बनाना होगा और सहस्रकल्पी की सज्ञा को प्रोढकर ही चलना होगा।
SR No.010636
Book TitleJan Jan ke Bich Acharya Shri Tulsi Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherMeghraj Sanchiyalal Nahta
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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