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________________ भक्तामर स्तोत्र। ४६ भिन्नेभकुम्भगलदुजज्बलशोणिताक्त, : मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः। बद्धक्रमाक्रमगतंहरिणाधिपोऽपि, . नाकामतिक्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३६॥ भिन्न -फूटे । इभ-हाथी । कुम्भ = कपोल। गलत् = यह रहा। उज्वल = सुन्दर । शोणित = लहू (खून)। भक्त मिला हुआ. मुक्ताफल = मोती । प्रकर-समूह भूषित = शोभित । भूमि =पृथ्वी । भाग:- हिस्सा । बद्ध = बांधा । क्रम तरीका क्रमगत-क्रमप्राप्त। हरिणाधिप:शेर । अपि =भी । न = नहीं । आक्रामति =दवा लेता है । क्रमयुग-चरणयुगल । अचल-पहाड़ संश्रित सहाय लिये। ते-तेरा। , अन्वयार्थ-फाइदिये जो हाथीयों के कुम्भ उनसे गिर रहे उजले. लह ले मोंगे हुए मोतीयों के समूह कर शोभित कर दिया है जमीन का हिस्सा जिसने और वांधा है क्रम जिसने ऐसा भी शेर अपने पावमें पड़े हुए परन्तु भापके दो चरण रूप पर्वत के भासरे होनेवाले को नहीं दवा सकता ॥ भावार्थ- हे भगवन महाभयंकर हाथियोके मस्तक के छेदने वाला जिसे देखते ही इन्सान कांप उठे यदि ऐसे शेरके पैरमै भो कोई आपका भक्त फंस जावे तो शर उसे कुछ भी वाधा नहीं कर सकता । जसे गुफा में अंजना सुन्दरों की सहायता हुई थी। . नोट- इस काव्य के भाषा छन्द कवि हेमराज जी कृत में कालदोष से एक . ऐसा शब्द प्रचलित होगया था जो मरद के पुशोदा' अंग का नाम है 'जो स्त्रियों के सन्मुख कहते हुए लज्जा भाती है तो हमने ठीक कर दिया है। अतिमदमत्तगयन्द, कुम्मथल नखन विदारै। मोतीरक्त समेत, डार भूतल सिंगारैः॥ बांकी दाढ़, विशाल, बदन में रसना हाले। भीम भयङ्कर रूप देख जन थरहर चाले। ऐसे मृगपति पग तलेजो नर आया होय। शरण गहै तुम चरण की; पाधाकर न सोय॥३९॥
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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