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________________ ३८ भक्तामर स्तोत्र | उन्निद्र हेमनवपंकज पुज्नकांती, पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौपदानि तव यत्र जिनेंद्र धत्तः, पद्मानि तच विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३६ ॥ उन्निद्र = खिला । हेम = सोना । नव = नया | पंकज - कमल | पुज्ञ समूह कांति - शोभा । पर्युल्लसत् - बहुत चमकीला । नत्र = नाखून. मयूख किरणें । शिखा = लाट (ज्वाला) । अभिराम मनोहर । पादौ चरण । पदानि =जगह | तत्र तेरे | यत्र - जहां। जिनेन्द्र = जिनेश । धतः = धरते हैं । पद्म कमल । तत्र - वहां । विवध देवता परिकल्पयन्ति == कल्पना करते हैं ॥ · अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र खिले हुए सोने के नए कमलों के समूह के समान कांति वाले और चमकीले नाखूनों की किरणों की शिखा से मनोहर आपके पांव जहां जहां पग धरते हैं। वहां वहां देवता कमल रचते हैं । भावार्थ-हे भगवन् चमकती हैं नाखूनों की किरणों की निहायत खूबसूरत शिखा जिनकी ऐसे खिले हुए निर्मल सोने के कमलों के समूह की मानिन्द रोशन C आपके चरण जहां जहां कदम धरते हैं वहां वहाँ देवता कमल रचते हुए चले जाते हैं। ॥ दोहा छन्द ॥ विकसित सुबरण कमल द्युति । नखद्युति मिल चमकाहिं || तुम पद पदवी जहां धरै । 34 1 तहां सुर कमल रचाहिं ॥ ३६ ॥ ३६ - श्रुति शोभा ।
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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