SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तामर स्तोत्र। १९ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसायुगपज्जगन्ति । नांभोधरी दरनिरुद्धमहाप्रभावः, सूर्याति शायिमहिमासि मुनींद्रलोके ॥१७॥ न नहीं । मस्त -बजाना । कदाचित -कभी भी। उपयासि जाता है। न नहीं । राहुगम्यः = राहु करके पास किया गया। स्पष्टी करोपि-जाहिर करता है। सहसा-शीघ्र ही । युगपत् एकदम । जगन्ति-तीन लोक । न= नहीं। अम्मोधर-बादल । उदर-पेट (मध्य) । निरुद्ध = रुका । महा-बड़ा प्रभाव प्रताप । सूर्य = रवि । अति शायि-जियादा । महिमा -महात्म्य ।असि-हैं। मुनीन्द्र -मुनीश्वर । लोके-संसार में ॥ अन्वयार्थ-हे प्रभो !तून कभी अस्त होता है न राष्ट्र से ग्रास किया जाता है और शीघ्र तीनलोकों को एक दम प्रकाश करता है तथा नहीं रुका बादलों के बीच बड़ा प्रभाव जिसका लो ऐसा तू संसार में सूरज ले अतिशय महिमा युक्त है। भावार्थ-हे भगवन् यदि आपको मैं सूर्य की उपमा दूं तो सूर्य संध्याकाल अस्त होजाय है अमावस के दिन ग्रहण में राष्ट्र से प्रसा भी जाय और जगत् को क्रम से प्रकाशे है तथा बादलों के बीच भी आजाय सो आप में यह दोष कोई भी नहीं है - भाप सर्व दोषरहित निर्विघ्न निरंतर सदा काल तीन लोक को प्रकाशे हैं इसलिये आप निरुपम कहिये उपमा रहित महान् तेजस्वी सूर्य है ॥ छिप हो न लिपो राह की छाहि। जग प्रकाशक हो छिन माहि ॥ धन अनवत्तं दाह विनिवार । रवितें अधिक धरो गुणसार ॥ १७ ॥ ...१७-लिपो-ढका जाना । धन अनवर्त बादल से न ढका जाना। दाह मगरमी । विनिचार-इटामा । रवि-सूर्य ।
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy