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________________ ७८ १. रीसे भी नीच प्रतीत होता है । क्यों कि जिनके विवेकरूपी धन है, ऐसे महर्षियों को जब महा ऋद्धियोंके धारण करनेवाले, अतिशय कान्तिवाले, अनुपम विषयभोगोंके भोगनेवाले और बड़ी २ लम्बी अवस्थाओंवाले इन्द्रादिदेव ही यदि वे सम्यग्दर्शनादि रत्नोंसे रहित हों, तो अतिशय दरिद्री और विजलीके विलास सदृश क्षणभंगुर जीवनक धारण करनेवाले जान पड़ते हैं, तब फिर दूसरे संसाररूपी उदरकी गुफा में रहनेवाले क्षुद्र जीवोंकी तो बात ही क्या है ? अर्थात् वे तो अतिशय दरिद्री हैं ही । जैसे वह निष्पुण्यक लोगोंसे अनादरपूर्वक पाये हुए उस घिनौने भोजनको खाते समय यह शंका किया करता था कि, "कोई बलवान् इसे छीन न ले जावे" उसी प्रकारसे यह महामोहसे मारा हुआ जीव भी जब अनेक क्लेशोंसे उपार्जन किये हुए धन तथा स्त्री आदि दूसरे भोगोंको भोगता है, तत्र चोरोंसे डरता है, राजाओंके आकस्मिक भय भयभीत रहता है, दायादोंके ( हिस्सेदारों के भय से कांपता रहता है, याचकोंके कारण उद्वेजित रहता है-उनसे पीछा छुटाना चाहता है और अधिक कहनेसे क्या यह जिन्हें किसी भी पदार्थकी वांछा नहीं रहती है, ऐसे अत्यन्त निप्पृह मुनियोंकी ओरसे भी शंकित रहता है । वह समझता है कि, ये उपदेशरूप वचनोंके घटाटोपसे ठमकर मुझसे मेरी यह धनादि सामग्री लेना चाहते हैं । इस प्रकार अतिशय मूर्च्छारूप ( इच्छारूप ) विषयसे अभिभूत होकर यह सोचता है कि, मेरे ये धनादि पदार्थ अग्निसे जल जावेंगे, नदीके प्रवाह में वह जावेंगे, चोरादि इन्हें हर ले जावेंगे, इसलिये इन्हें सुरक्षित करना चाहिये । और फिर - किसी भी पुरुषका भरोसा नहीं होनेके कारण यह अकेला ही रातको उठकर भूमिमें बहुत गहरा गड्ढा खोदकर और बिना किसी प्रकारका
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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