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________________ ७५ आनन्द हुआ हो, परन्तु उनके रोनेपर रोता है, अपने चाहे शत्रु हों, पर राजाके प्यारे हों, तो उनकी प्रशंसा करता है, इसी प्रकार अपने मित्रकी भी यदि वह राजाका वैरी हो, तो निन्दा करता है, रातदिन आगे २ दौड़ता है, स्वयं थकामांदा हो, तो भी उनकी पगचंपी करता है, अपवित्र स्थानोंको धोता है, उनके कहनेसे सारे नीच कर्म करता है, यमराजके मुंहके समान युद्धके मुंहमें प्रवेश करता है, तरवार आदि हथियारोंके घावोंके सहन करनेको अपना वक्षःस्थल समर्पण कर देता है, और इस तरह धनकी इच्छा करनेवाला यह रंक जीव मनोरथ पूर्ण किये विना ही मर जाता है। कभी यह खेती करनेका आरंभ करता है, तो उसके कारण रातदिन खेदित होता है, हल जोतता है, जंगलमें रहकर पशुजीवनका अनुभवन करता है, अर्थात् पशुओंके समान जिन्दगी बिताता है नानाप्रकारके प्राणियोंका घात करता है, पानीके नहीं वरसनेसे संताप करता है और वीजके नाश हो जानेसे दुखी होता है। कभी व्यापार आरंभ करता है, तो उसमें झूठ बोलता है, विश्वास करनेवाले भोले लोगोंको लूटता है, देशान्तरोंको जाता है, शीतका कष्ट भोगता है, धूपकी गर्मी सहता है, भूखों मरता है, प्यासको नहीं गिनता है, भय और परिश्रमजन्य सैकड़ों दुःखोंका अनुभव करता है, अतिशय भयानक समुद्रोंमें प्रवेश करता है, और उसमें जहाजके फट जाने अथवा टूट जानेसे डूबकर जलचर जीवोंका भोजन बन जाता है । कभी पर्वतोंकी कन्दराओंमें फिरता है, असुरोंकी गुहाओंमें जाता है, और रसकूपिकाओंका शोध करता है, जिससे कि उनके रक्षक राक्षस उसका भक्षण कर जाते हैं। कभी और भी बड़ा साहस करता है-रातको स्मशानोंमें जाता है, . मरे हुए मनुष्योंके
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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