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________________ ५८ रण दरिद्री है । जैसे वह रंक पुरुषार्थरहित है, उसी प्रकारसे इस जीवको भी अपने कर्मोंके कारणभूत आस्रवके रोकनेका पराक्रम नहीं होनेसे पुरुषार्थहीन समझना चाहिये । जैसे भिखारीको भूखके कारण दुबला बतलाया है, उसी प्रकारसे इस जीवको भी निरन्तर विषयरूपी भूख लगी रहनेके कारण कृशशरीर समझना चाहिये । जैसे भिक्षुकको अनाथ कहा है, उसी प्रकारसे इस जीवको भी सर्वज्ञदेवरूपी नाथके नहीं मिलनेसे अनाथ जानना चाहिये । जैसे धरतीमें सोनेसे निष्पुण्यककी पीठ और दोनों करवट छिल गये हैं ऐसा बतलाया है, उसी प्रकारसे इस जीवके सारे अंग-उपांग निरन्तर पापरूपी अतिशय ककरीली भूमिमें लेटनेसे खूब ही छिल गये हैं, ऐसा समझना चाहिये । जैसे भिखारीका स्वरूप कहा है कि, उसका सारा शरीर धूलिसे मैला हो रहा है, उसी प्रकारसे इस जीवका सारा शरीर भी बँधनेवाले पापपरमाणुओंकी धूलिसे धूसरा समझना चाहिये । जैसे दरिद्रीको चीथडोंसे ढंका हुआ कहा है, उसी प्रकारसे यह जीव भी मोहकी २८ भेदरूपी छोटी २ पताकाओंसे (झंडियोंसे ) सब ओरसे लिपटा है, इसलिये अतिशय बीभत्सरूप अर्थात् घिनोना दीखता है और जैसे उस भिखारीको निन्दनीय तथा दीन कहा है, उसी प्रकारसे यह जीव भी विवेकके स्थानभूत (ज्ञानी) सज्जनोंके द्वारा निन्दनीय और भय शोकादि पीड़ा देनेवाले कर्मों से परिपूर्ण होनेके कारण अतिशय दीन है। जैसे उस अदृष्टमूलपर्यंत नगरमें वह दरिद्री भिक्षाके लिये घर घर फिरा करता हैं, ऐसा कहा है, उसी प्रकारसे यह जीव भी संसार नगरमें एक जन्मसे दूसरा जन्म धारण करनेरूप ऊंचे नीचे घरोंमें, विषयरूपी भिक्षाभोजनकी आशाकी फाँसीमें उलझा हुआ,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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