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________________ हुए और पुण्यहीन ऐसे मेरे पूर्वकी स्थितिके 'जीवको' निष्पुण्यक दरिद्री जानना चाहिये । भिक्षाका आधारभूत जो उसका मिट्टीका टीकरा था, उसे गुणदोपोंकी आधारभूत 'आयु ' मानना चाहिये । उपद्रवी लड़कोंको 'कुतीर्थक' (अन्यधर्मी), वेदनासे चित्तको ग्लेशित करनेवाले भिखारीके रोगोंको 'रागादि,' और अजीर्णको 'कीका संचय' समझना चाहिये। भोग और स्त्रीपुत्र आदिक ' जो संसारके कारण हैं, जीवको आसक्त करते हैं, इसलिये उन्हें दरिद्रीका कदन्न समझना चाहिये। सुस्थित नामके जो महाराज कहे गये हैं, उन्हें परमात्मा सर्वज्ञ 'जिनदेव' जानना चाहिये। अतिशय आनन्दके उत्पन्न करनेवाले और अनन्तविभूतिसे भरे हुए राजमन्दिरको 'जिनशासन' समझना चाहिये। स्वकर्मविवर नामका जो द्वारपाल कहा गया है, उसे अपने यथा नाम तथा गुणको धारण करनेवाला ' अपने कर्मोंका विच्छेद ' समझना चाहिये । और वहां प्रवेश करानेवाले जो और द्वारपाल कहे हैं, तत्त्वकी चिन्ता करनेवालोंको चाहिये कि उन्हें मोह, अज्ञान, लोभादि समझें।। राजालोग 'आचार्य'-मंत्री ‘उपाध्याय '-योद्धालोग श्रेष्ठ 'गीतार्थमुनि,'-गणोंकी चिन्ता करनेवाले नियुक्तक (कामदार ) 'गणी'-तलवर्गी (कोटपाल) सर्व 'सामान्य भिक्षुक,'-शान्तरूप वृद्धास्त्रियां 'अर्यिकाएं '-सुभटसमूह उनकी रक्षामें चित्त लगानेवाले 'श्रावक '-और विलासिनियों के समूह भक्तिमती 'श्राविकाएं' समझनी चाहिये। __ शब्दादि विपयोंका आनन्द जो इस प्रकरणमें वर्णन किया गया है, सो सद्धर्मके प्रभावसे जो शन्दादि विषय प्राप्त होते हैं, वे भी सुन्दर होते हैं, ऐसा समझना चाहिये । धर्मवोधकरको मेरे प्रबोधित
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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