SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुकार पुकारके औषधियां देना चाहिये। ऐसा करनेसे यदि कोई लेनेवाला मिल जाय, तो बहुत अच्छा हो ।" तत्र सपुण्यकने इस प्रकार जोरसे आवाज लगाई कि, "हे भाइयो! इन औषधियोंको लो ! लो।" और वह उस घरमें चारों ओर घूमने लगा। उसका यह पुकारना सुनकर वहांपर जो उसके समान अतिशय तुच्छ जीव थे, वे तो उससे उन औषधियोंको लेने लगे । परन्तु दूसरे लोगोंके हृदयमें यह विचार हुआ कि, " अहो ! यह रंक जो पहले दरिद्री था अब पागलसा हो गया है, इसलिये राजस्तुतिके वशसे अर्थात् राजाके समान मेरी भी स्तुति होवे इस इच्छासे, अपनी औषधियां हमको देना चाहता है।" इसलिये उनमेंसे कई लोग उसे दान करते देखकर खूब हँसने लगे, कई लोग उसका ठट्ठा करने लगे और कई लोग पराङ्मुख होकर उसका निरादर करने लगे। सपुण्यकने दान करनेके उत्साहको भंग करनेवाली लोगोंकी ऐसी क्रियाएं देखकर सबुद्धिसे कहा, "हे भद्रे ! ये औषधियां मेरे पाससे केवल दरिद्री ही लेते हैं, महापुरुष नहीं लेते हैं, और मेरी इच्छा है कि, इन्हें सब ही लोग लेवें । हे निर्मल नेत्रोंवाली । तू पालोचना करनेमें अर्थात् भलीभांति विचार करनेमें बहुत चतुर है, इसलिये वतला कि, महात्मा पुरुप मेरे पाससे औषधियां किस कारणसे नहीं यह सुनकर-" इसने तो मुझे बड़े भारी काममें नियुक्त कर दी" इस प्रकार विचार करते हुए उस सद्बुद्धिने महाध्यानमें प्रवेश ‘किया फिर वह इस कार्यका गहरा अभिप्राय निश्चय करके वोली, “सत्र लोग इन औपधियोंको ग्रहण करने लगें, इसका अब एक ही सर्वोत्तम उपाय है। वह यह कि, लोगोंसे खचाखच भरे हुए इस
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy