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________________ . 4 रक्खा है, यह मेरा भिक्षाकार निश्चय करके जलप अवस्थाका बारे किया जाता नहीं हो जाता है साथ ही धर्मवाचक ने कहा, "ह ही क्या है ? मुझे इस कुभोजनकी स्मृति भी नहीं होगी। क्योंकि-को नाम राज्यमासाद्य स्मरेच्चाण्डालरूपताम् । अर्थात् एक बड़े भारी राज्यको पाकर अपनी पूर्वकी चांडालरूप अवस्थाका कौन स्मरण करता है?" इस प्रकार निश्चय करके उसने सद्बुद्धिसे कहा, "हे भद्रे! यह मेरा भिक्षाका पात्र ले लो और इसमें जो सब कदन्न रक्खा है, उसे दूर करके इसका क्षालन कर दो-धोकर साफ कर दो।" __ सद्बुद्धिने कहाः~"हे भाई ! इस विषयमें तुझे धर्मवोधकरसे भी पूछ लेना चाहिये। क्योंकि काले न विक्रियां याति सम्यगालोच्य यत्कृतम् । अर्थात् जो काम भली भांति विचार करके किया जाता है, वह समय पड़नेपर विक्रियाको प्राप्त नहीं होता हैकुछका कुछ नहीं हो जाता है।" तत्र निष्पुण्यकने सद्बुद्धिके साथ ही धर्मवोधकरके पास जा कर उसे अपना सारा वृत्तान्तं कह सुनाया । धर्मवोधकरने कहा, "हे भद्र ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया | बहुत अच्छा विचार किया । परन्तु पहिले इस विषयमें पक्का निश्चय कर लेना चाहिये, जिससे कि पीछे हँसी न होवे।" ___ दरिद्री बोला, "हे नाथ । यह आप मुझसे बार वार क्यों कहते हैं ? मेरा यह पक्का ही निश्चय है । क्योंकि उस कुभोजनपर अब मेरा जरा भी मन नहीं जाता है ।" उसका यह उत्तर सुनकर चतुर धर्मबोधकरने सब लोगोंके साथ भली भांति विचार करके उसके कुभोजनको छुड़वा दिया और उस भिक्षापात्रको उत्तम जलसे शुद्ध करके फिर उसे महाकल्याणक भोजनसे अच्छी तरह ठांस ठांस कर भर दिया । इसके पश्चात् अतिशय प्रसन्न होनेके कारण धर्मबोधकर उस दिनसें महाकल्याणकको भी वृद्धि करने लगा । अर्थात् उसको अधिक २ देने लगा।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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