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________________ १३ कि:-"हे भरे। यह मेरा शरीर आश्चर्यकारी क्यों हो गया है ? यह पहले तो दुःखोंकी सानि हो रहा था और अत्र सुखोंकी खानि हो गया है।" सदबुद्धिने कहा-"यह सब तेरे भलीभाँति पथ्य सेवन करनेसे और सब प्रकारके दोपोंके मूलभूत अहितकारी भोजनकी लोलुपता छोड़ देनेसे हुआ है। हे भद्र । पहलेके अभ्याससे तू अपने कदन्नको खाता है, तो भी मेरे पास रहनेके कारण तेरे चित्तमें इस कार्यसे बहुत ही लज्जा होती है, और लज्जाके कारण उसका संभोग (खाना) अकार्यल्प हो जाता है । अर्थात् उस कदन्न भक्षणका तेरे शरीरपर कुछ असर नहीं होता है । इसके सिवाय अधीन होनेके कारण स्वेच्छाचारकी भी निवृत्ति हो जाती है । अर्थात् अधीनतासे तू अपनी इच्छानुसार नहीं खा पी सकता है। इन सब कारणोंसे खाया हुआ भी कदन्न तेरे शरीरमें रोगकी बहुत वृद्धि नहीं कर सकता है। और इसीसे तुझे आनन्वानुगवन करानेवाला सुख हुआ है।" दरिद्रीने कहा:-"यदि ऐसा है, तो मैं इस कदन्नको सर्वथा छोड़ देता हूं, निससे कि मुझे उत्तम सुखकी प्राप्ति हो ।" सद्बुद्धि बोली:-"यह तो योग्य ही है । परन्तु इसे अच्छी तरहसे विचार करके छोड़ना, जिससे कि ममताके कारण तुझे पहलेके समान फिर आकुलता न हो जाय । यदि तूने त्याग कर दिया और फिर भी इसमें तेरा मोह बना रहा, तो इससे तो नहीं त्यागना ही अच्छा है। क्योंकि इस कदन्नमें मोह करना ही. रोगोंका बढ़ानेवाला है। वल्कि ऐसा करनेसे अर्थात् त्याग करके फिर उसमें ममता रखनेसेथोड़ा कदन्न खाते रहने और उसके साथ तीनों औपधियोंका सेवन करते रहने से वर्तमानमें जो रोगोंकी क्षीणता हुई है, वह भी अति
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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