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________________ २८ इस उपदेशसे दरिद्रीको विश्वास तो हो गया और निश्चय भी हो गया। परन्तु उस कुत्सित भोजनके त्याग करनेकी वातसे दीन पड़के वह धर्मबोधकरसे इस प्रकार कहने लगा कि, "हे नाथ ! आपने जो कुछ कहा, वह मुझे सच मालूम होता है। परन्तु मैं एक वात कहता हूं, उसे सुन लीजिये। यह जो मेरे ठीकरेमें भोजन रक्खा हुआ है, वह स्वभावसे ही मुझे प्राणोंसे भी आधिक प्यारा जान पड़ता है। इसे मैंने बड़े भारी क्लेशसे उपार्जन किया है और समय पड़नेपर इससे मेरा निर्वाह होना भी संभव है। इसके सिवाय आपका यह परमान्न मेरे लिये कैसा होगा, यह भी मैं नहीं जानता हूं । इसलिये हे स्वामी! मैं इस भोजनको किसी भी प्रकारसे नहीं छोड़ सकता हूं। सो यदि आपकी इच्छा देनेकी हो, तो मेरे भोजनको मेरे पास रहने दीजिये और अपना भोजन दे दीजिये ।" धर्मवोधकर उसका यह अभिप्राय सुनकर मनमें विचारने लगा," देखो अचिन्तनीय सामर्थ्यके धारण करनेवाले महा मोहकी चेष्टा कैसी विलक्षण है, जो यह दरिद्री अज्ञानतासे सारी व्याधियोंके करनेवाले अपने घिनौने भोजनमें लवलीन हो रहा है और उसके साम्हने मेरे इस परमान्नको तृणके समान भी नहीं समझता है। तो भी इस बेचारेको एक बार फिर भी कुछ शिक्षा देता हूं । यदिसमझानेसे मोह विलाय जायगा-अज्ञान नष्ट हो जायगा, तो इसके लिये बहुत अच्छा होगा।" ऐसा समझकर उस धर्मबोधकरने कहा,"हे भद्र | क्या तू यह नहीं जानता है कि, तेरे शरीरमें जितने रोग हैं, वे सब इस कुत्सित भोजनके कारणसे हैं ? और सत्र जीवोंको भी इस खराव भोजनके भक्षण करनेहीसे सब प्रकारके दोषोंका प्रकोप होता है । इसलिये जिनकी बुद्धि निर्मल है, उन सबहीको
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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