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________________ २०३ में कहीं थोड़ा बहुत न बताया हो, तो उसे इसी प्रकार अपनी बुद्धिसे योजित कर लेना चाहिये ।जो लोग संकेतको समझ जाते हैं, उन्हें उपमानके देखते ही उपमेयका ज्ञान हो जाता है-उन्हें उपमेयके समझनेमें कठिनाई नहीं पड़ती है। इसीलिये इस ग्रन्यकी आदिमें उपमानरूप कयाकी रचना की गई है। इस कयामें प्रायः एक भी ऐसा पद नहीं है, जिसका उपनय न हो अर्थात् जो दार्टान्तमें न घटाया जा सके। इस लिये जो इस विषयमें शिक्षित हो गये हैं उन्हें उसका (बीच २ में नहीं बतलाये हुए उपनयका) सहन ही सुखपूर्वक ज्ञान हो जायगा । इस विषयमें और अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं है। यह हि जीवमपेक्ष्य मया निजं यदिदमुक्तमदः सकंले जने । लगति संभवमानतया त्वहो गदितमात्मनि चारु विचार्यताम् ॥ अर्थात-मैंने अपने जीवकी अपेक्षासे यहां जो कुछ कहा है, वह सब संभव होनेके कारण प्रायः सब ही लोगोंपर घटित होता है। इसलिये हे भन्यो ! मेरे कहे हुएको अपने आत्मामें भले प्रकार घटाकर विचार करो। निन्दात्मनः प्रवचने परमो प्रभावो रागांदिदोपगणदौष्ट्यमनिष्टता च । प्राक्कर्मणामति बहुश्च भवप्रपञ्चः प्रख्यापितं सकलमेतदिहाद्यपीठे ॥ अर्थात्--ग्रन्यकी इस आदिपीठिकामें अपनी निन्दा, जिनसासनकी अतिशय प्रभावना, रागादि दोपोंकी दुष्टता तथा अनिष्टता
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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