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________________ १३ 'धारण किया और वह महाभद्राके साथ आचार्यके समीप गया। वहांपर सुललिताने चोरीका सम्पूर्ण वृत्तान्त आदरपूर्वक पूछा । तत्र आचार्य महाराजकी प्रेरणासे और उस राजपुत्रीको प्रतिबोधित करनेकी छासे संसारी जीवने (चक्रवर्तीने ) अतिशय वैराग्यका उत्पन्न करनेवाला अपना भवप्रपंच उपमाके द्वारा कह सुनाया। जिसके प्रसंग मात्रको सुनकर पुंडरीक राजकुमार क्षणभरमें अपने लघुकर्मपनेके (निकटमन्यताके) कारण प्रबुद्ध हो गया। परन्तु वह राजपुत्री प्राचीन कोंके दोपसे विशेषतासे कहनेपर और वारंवार प्रेरणा करनेपर भी प्रतिबुद्ध नहीं हुई । निदान बड़े कष्टसे जैसे तैसे वह राजपुत्री बोधको प्राप्त हो गई और वे सब आचार्य, महाभद्रा, सुललिता, धुंडरीक और चक्रवर्ती आत्माके लिये पथ्यलय जो शिवालय क्ष), उसमें जा पहुंचे। ..इस कयाशरीरको अपने हृदयमें धारण कर रखना चाहिये । क्योंकि आठवें प्रस्तावमें यह सर्व वृतान्त प्रगट होगा। विशेप विज्ञप्ति । यथार्थमें यह कथा सर्वज्ञप्रणीत सिद्धान्तके वचनरूपी अमृतसागरसे निकाली हुई एक जलविन्दुके समान है । अतएव दुर्जन लोग इ. सके श्रवण करनेके योग्य नहीं हैं। क्योंकि "कालकूट विष अमृतविन्दुके साथ नहीं मिलाया जाता है।" और पापियोंकी पापकारिणी चर्चा ही क्यों की जावे ! इस विचारसे यहांपर दुर्जनोंके दोपोंका विचार भी नहीं किया जाता है। दुर्जनकी स्तुति की जावे तो भी वह काव्यके दोपोंको प्रकाश करता है और यदि निंदा की जावे तो और भी अधिक करता है। इसलिये उसकी उपेक्षा करना ही उचित है । अथवा दुर्जनोंकी निन्दा
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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