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________________ २०० उस समय जब कि यह उपदेश देता है, जो लोग अतिशय मन्दबुद्धि होते हैं, वे तो इसके उपदेश किये हुए ज्ञानदर्शन चारित्रको कदाचित् ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु जो महान्वुद्धिके धारक होते हैं, वे इसके पुराने दोषोंका स्मरण करके इसे प्रायः हास्यके ही योग्य समझते हैं । यद्यपि यह उन महापुरुषोंके द्वारा तिरस्कार पाने योग्य है, परन्तु वे इसका तिरस्कार नहीं करते हैं । यह उन महापुरुषोंका गुण है, इसका नहीं । फिर यह सोचता है कि, ऐसा क्या उपाय किया जाय जिससे मेरे इस ज्ञानदर्शनचारित्रको सब लोग ग्रहण करने लगे। और सद्बुद्धिके बलसे निश्चय करता है कि, “यदि मैं साक्षात्रूपसे उपदेश दूंगा, तो ये सब लोग उसे कदापि ग्रहण नहीं करेंगे, इसलिये जिनेन्द्र भगवानके मतके सारभूत तथा निरूपण करनेके योग्य जो ज्ञानदर्शनचारित्र हैं, उन्हें एक ग्रन्थरूपमें ज्ञेय', श्रद्धेय और अनुष्ठेय' अर्थक विभागपूर्वक और विषय विषयीके भेदके विना स्थापित करना चाहिये और उस ग्रन्थको इस जिनेन्द्रशासनमें भव्यजनोंके साम्हने खोल कर रख देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसमें प्रतिपादन किये हुए ज्ञानदर्शनचारित्र सब लोगोंके ग्रहण करने योग्य हो जावेंगे। यदि यह मेरा रचा हुआ ग्रन्थ बहुत जीवोंके उपयोगमें आवै, और उन्हें ज्ञानादिकी प्राप्ति करावै, तब तो बहुत ही अच्छा। परन्तु अन्ततो गत्वा यदि इससे एक भी प्राणीको उक्त ज्ञानदर्शनचारित्र भावपूर्वक प्राप्त हो गये, तो मैं समझंगा कि, मैंने सब कुछ पा लिया-मेरा प्रयत्न सफल हो गया।" इस प्रकार विचार करके इस जीवने (मैंने ) यह १ जानने योग्य (ज्ञान)। २ श्रद्धा करने योग्य (दर्शन)। ३ आचरण करने योग्य (चारित्र)।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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