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________________ १९७ नहीं होता, तो यह जीव अपनी पूर्वकी सारी नीचताओंको भूलकर ऐसा अभिमान क्यों करता ? उस समय यह विचारता है कि, "जब कोई मुझसे विनयपूर्वक प्रार्थी होकर ज्ञानादिका स्वरूप पूछेगा, तब ही में उनका निरूपण करूंगा-विना पूंछे उपतकर नहीं।" इस प्रकारके अभिप्रायकी विडम्बनामें पड़कर जीव इस मुनियोंके शासनमें बहुत समय तक रहता है, परन्तु इसके पास कोई भी पूछनेवाला नहीं आता है। क्योंकि जिनशासनमें जो जीव भावपूर्वक रहते हैं, वे तो स्वयं ही ज्ञानदर्शनचारित्रको अच्छी तरहसे धारण करनेवाले होते हैं-इस प्रकारके उपदेशकी अपेक्षा नहीं रखते हैं और जो जीव तत्काल ही कर्मविवरको पाकरके (कर्मोंके विच्छेदसे) सन्मार्गपर पैर रखनेके सन्मुख हुए हैं, अर्थात् जिन्होंने जैनशासनमें हाल ही प्रवेश किया है, और अब तक जो सम्यग्ज्ञानदर्शनादिसे रहित हैं, वे इस (याचकोंकी राह देखनेवाले ) जीवके सन्मुख भी नहीं देखते हैं-याचना करनेकी तो बात ही जुदी है। क्योंकि उन्हें जैनशासनमें दूसरे बहुतसे महान्वुद्धिके धारण करनेवाले महात्मा मिलते हैं कि जो सम्यग्ज्ञानादिका निरूपण करनेमें बहुत चतुर होते हैं और जिनके पाससे वे सम्यग्ज्ञानदर्शन और चारित्रको विना किसी प्रकारके कप्टके इच्छानुसार प्राप्त कर सकते हैं। अतएव यह अभिमानी जीव किसी भी प्रार्थीके न आनेसे व्यर्थ ही अपनेको वड़ा मानता हुआ चिरकाल तक बैठा रहता है और अपना कुछ भी स्वार्थ नहीं साध सकता है। __ आगे कथामें कहा है कि, फिर उस सपुण्यकने सद्बुद्धिसे पूछा कि, " मुझे इन औषधियोंका दान किस प्रकारसे करना चाहिये।" तब उसने कहा कि, “हे भद्र ! वाहर निकालकर घोषणापूर्वक
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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