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________________ १९४ विकार कार्य हैं। और यदि कभी पूर्वोपार्जित कर्मोंके उदयसे होती . है, तो वह थोड़ी होती है और बहुत समय तक नहीं रहती है। तब यह संसारके व्यापारादि कार्योंकी अपेक्षा नहीं रखनेवाला जीव वांचना, पृच्छना ( पूंछना ), परावर्त्तना ( पहिलेका याद करना), अनुप्रेक्षा ( मनन करना ), और धर्मकथारूप पांच प्रकारका स्वाध्याय करके अपने ज्ञानको बढ़ाता है, जिनशासनकी उन्नति करनेवाले शास्त्रोंके अभ्यासादिसे सम्यग्दर्शनको दृढ़ करता है, और उत्कृष्ट प्रकारके तप नियमादिकोंका पालन करके चारित्रको आत्मस्वरूप बनाता है। इस सब कथनको तीनों औषधियोंके भावपूर्वक सेवन करनेके तुल्य समझना चाहिये। इस प्रकारकी दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणतिसे जीवके वुद्धि, धीरज, स्मृति, वल आदि गुण प्रगट होते हैं। यद्यपि बहुतसे रागादि भावरोग जो कि अनेक जन्मोंमें कमाये हुए कर्मों के परिपाकसे उत्पन्न होते हैं; सत्तामें बने रहते हैं जिससे कि अभीतक यह सर्वथा रोगरहित नहीं होता है, तो भी इसके रोग बहुत ही क्षीण वा हलके हो जाते हैं । यही कारण है, जो यह जीव पहिले बहुत ही बुरे कायौँके करनेमें रुचि रखता था और उन्हे आत्मरूप अनुभव करता था, सो अब धर्मके कार्य करनेमें रुचि रखता हुआ उस धर्मको निजरूप अनुभव करता है। __ आगे जैसे तीर्थजलादि औषधियोंके सेवन करनेसे उस भिखारीका चिरकालके अभ्यस्त किये हुए तुच्छता (ओछाई ) क्लीवता ( नपुंसकता ), लालच, शोक, मोह, भ्रम आदि भावोंको छोड़कर कुछ उदारचित्त होना बतलाया है, उसी प्रकारसे यह जीव भी.ज्ञान दर्शन और चारित्रके सेवनके प्रभावसे . अपने तुच्छतादि
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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