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________________ १९१ यह धनविषयादिके सम्मुख भी नहीं देखता है। " को हि नाम सकर्णको लोके महाराज्याभिषेकमासाद्य पुनश्चाण्डालभावमात्मनोऽभिलपेत्" अर्थात् ऐसा कौन बुद्धिमान है, जो एक बड़े भारी राज्यको पाकर फिर अपने पूर्वके चाण्डालपनेको पानेकी इच्छा करता है।" इस प्रकार विचार करके यह जीव "अब मुझे यह सारा परिग्रह छोड़ ही देना चाहिये-इसके छोड़नेसे मेरा कुछ भी अपाय नहीं होगा-अर्थात् मुझे कुछ भी दुःख नहीं होगा, " ऐसा स्थिर निश्चय कर लेता है। फिर सहाद्धिके साथ विचार करके यह ऐसा निश्चय करता है कि मुझे इस प्रयोजनके विषयमें धर्मगुरुसे पूछ लेना चाहेय। तदनुसार उनके समीप जाकर विनयपूर्वक अपना अभिप्राय प्रगट करता है, तब वे उसकी प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि, " हे भद्र! तुम्हारा अभिप्राय बहुत सुन्दर है परन्तु इस मार्गपर चलनेका महापुरुषोंको ही अभ्यास रहता है- महापुरुप ही इस कठिन मार्गपरसे चल सकते हैं, कातर ( डरपोक, कायर) पुरुषोंको इस मार्गमें दुःख होता है; इस लिये यदि तुम इसपर चलना चाहते हो, तो धैर्यका दृढ आलिंगन करो । क्योंकि जिनके चित्तमें उत्कृष्ट धैर्य नहीं होता है, वे पुरुप इस मार्गके अन्त तक नहीं पहुंच सकते हैं-. वीचहीमें गिर जाते हैं। " इसे धर्मवोधकरके भिखारीको समझानेके तुल्य समझना चाहिये । इसके पश्चात् यह जीव गुरुमहाराजके वचनोंको स्वीकार करता है और गुरुमहाराज इसे इसकी भलीभांति परीक्षा करके तथा समीपके रहनेवाले गीतार्थ मुनियोंके साथभी इसकी योग्यताका विचार करके दीक्षा दे देते हैं । यहां सम्पूर्ण परिग्रहके त्यागको कुभोजन छोड़नेके समान समझना चाहिये।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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