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________________ किया, मोक्षको पहुंचानेवाले विमानपर आरोहण किया, लोकसंज्ञाका (लौकिक नाम अथवा बुद्धिका) त्याग किया, धर्मका आचरण किया, और अपने आत्माको भवसमुद्रसे तिरा कर पार कर दिया।" गुरुमहाराजके इस प्रकारके वचनरूपी अमृतके प्रवाहसे जीवका हृदय आल्हादित हो जाता है, और वह गुरुके वचनोंको मान लेता है। पश्चात् गुरुमहाराज उसे उपदेश देते हैं कि, "हे सौम्य ! तुझसे एक अतिशय गुह्य वात कहते हैं, उसे तुझे अच्छी तरहसे धारण करना चाहिये-हृदयपटलपर लिख रखना चाहिये कि जब तक यह जीव विपरीत ज्ञानके वशसे दुःखरूप धनविषयादिकोंमें सुख मानता है, और सुखरूप वैराग्य तप संयमादिमें दुःख मानता है, तब तक ही इसका दुःखसे सम्बन्ध है; परन्तु जब इसे विदित हो जाता है कि, विषयोंमें प्रवृत्ति करना-विपयोंको भोगना ही दुःख है और धन विषयादिकी अभिलापासे निवृत्त होना ही सुख है, तब यह सम्पूर्ण आशाओंका नाश हो जानेसे और निराकुल हो जानेके कारण स्वाभाविक सुखोंके प्रगट हो जानेसे निरन्तर आनन्दरूप हो जाता है। और भी तुझे एक परमार्थकी बात सुनाता हूंजैसे जैसे यह पुरुष निप्पृह अर्थात् अभिलापारहित होता है, तैसे तैसे -पात्रता आनेके कारण इसे सारी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं और जैसे जैसे यह सम्पदाओंका अभिलाषी होता है, तैसे २ वे सम्पदाएँ मानो इसको अपात्र वा अयोग्य समझकर इससे बहुत दूर भागती हैं । इसलिये तुझे इस वातको अच्छी तरहसे निश्चय करके किसी भी सांसारिक पदार्थके पानेकी वा भोगनेकी अभिलाषा नहीं रखना चाहिये। यदि तू इस वातको मान लेगा, तो तुझे कभी किसी शारीरिक और • १ छुपाने योग्य लाभकी बात ।।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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