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________________ होनेके कारण 'गुरुमहाराज इसे थोड़े ही जानेंगे ' इस अभिप्रायसे चोरीसे लाये हुए पदार्थ ले लेता हूं, विषयकी लोलुपतासे वेश्यादि स्त्रियोंके साथ सहवास करता हूं, तथा आपके रोके हुए और भी अनेक आचरण करता हूं, तब लोग निन्दा करने लगते हैं, राजकुलके लोग सारा धन जब्त कर लेते हैं, शरीरको कष्ट होता है, मानसिक दुःख होते हैं, इसके सिवाय और भी समस्त अनर्थ इस लोकमें ही प्राप्त हो जाते हैं, तथा पाप ऐसा आचरण करनेवाले पुरुपोंको दुर्गतिरूपी गढेमें पटक देता है, इस चिन्तासे हृदय जलने लगता है और क्षणभरको भी मुझे सुख नहीं मिलता है। इसलिये हे नाथ! अब आप ऐसा यत्न कर दीजिये, जिससे मैं आपके वचनोंके अनुसार आचरण करनेरूप कवचको निरन्तर पहिने रहकर इन अनर्थरूपी वाणोंसे बचा रहूं। - यह सुनकर गुरुमहाराजने कहा कि, “हे भद्र ! यद्यपि दूसरोंके रोकनेसे बुरे कार्य बहुत ही कम रुकते हैं, तो भी रोकनेसे और नहीं रोकनेसे क्या विशेपता होती है-क्या हानि लाभ होता है यह तू अच्छी तरहसे देख चुका है। हम अनेक प्राणियोंका उपकार करनेमें लगे रहते हैं-व्यग्र रहते हैं, इसलिये तुझे सदा पास रहकर नहीं रोक सकते हैं। ऐसी दशामें जब तक तेरे हृदयमें स्वयं सवुद्धि नहीं होगी, तब तक इन हमारे निषेध किये हुए आचरणोंसे जो अनर्थपर अनर्थ होते है, हुआ ही करेंगे-रुकेंगे नहीं। क्योंकि सवुद्धिरेवपरप्रत्ययमनपेक्ष्य स्वमत्ययेनैव जीवमकार्यान्निवारयति । अर्थात् सद्बुद्धि ही एक ऐसी है, जो दूसरोंके सहारेकी अपेक्षाके विना अपनी ही सहायतासे जीवको बुरा कार्य करनेसे रोक सकती है और तब ही जीव अनर्थोंसे बच सकता है।"
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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