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________________ १७७ तुझे कुमार्गपर जाते हुए देखकर भी हम इस भयसे नहीं रोकते हैं कि, कहीं इसे आकुलता न हो जाय । यदि रत्नत्रयकी ओर आदरदृष्टिसे देखनेवाले, विरुद्ध कामोंको छोड़नेवाले और ज्ञान दर्शन तथा देशचारित्रमें स्थिर रहनेवाले पुरुषों के विकारोंका हमसे निवारण हो गया, तो वस है, आदररहित पुरुषोंके विकार निवारण करनेसे हम बाज आये । जब हमारे देखते हुए भी तू रागादि रोगोंसे दुखी रहता हैं, तब लोग हमें भी उपालंभ देंगे-हमारी भी निन्दा करेंगे कि, ये इसके गुरु हैं।" इसे तद्दयाने उस भिखारीको जो उलहना दिया था, उसके समान समझना चाहिये। __ पश्चात यह जीव गुरुमहाराजसे कहता है कि, "भगवन् ! अनादि कालसे मुझे इनका अभ्यास हो रहा है, इसलिये ये तृप्णा, : लोलुपता आदिके भाव मुझे मूच्छित रखते हैं। इनके वशवर्ती होनेसे आरंभ परिग्रहके बुरे विपाकको अर्थात् कडुए फलको मैं अच्छी तरहसे जानता हूं, तो भी उसे नहीं छोड़ सकता हूं। इसलिये आपको मुझसे उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । किन्तु मुझे बुरी प्रवृत्ति करते देखकर रोकना चाहिये । शायद आपके माहात्म्यसे ही थोड़े थोड़े दोपोंको त्याग करते २ मेरी ऐसी कोई परणति हो जाय कि, उससे मैं कभी सारे दोपोंका त्याग (महाव्रतधारण) करनेमें भी समर्थ हो जाऊं।" __गुरुमहाराज उसकी यह बात मान लेते हैं और यदि वह कभी प्रमाद करता है अर्थात् अपनी प्रवृतिमें कुछ दोप लगाता है, तो वे रोक देते हैं। उनके वचन माननेसे पहिलेकी प्रवृतिपीड़ा शान्त हो जाती है और उनके प्रसादसे ज्ञानादि गुण बढ़ने लगते हैं। जीवकी इस दशाको. तद्दयाके वचनानुसार चलनेसे. उस भिखारीको १२
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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