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________________ १७० जिन जीवोंको ये रत्नत्रयरूप औपधियां शुरूमें ही अच्छी नहीं लगती हैं, इनके सेवन करनेवाले दूसरे जीवोंका जो तिरस्कार करते हैं, सद्गुरुओंके बड़े भारी प्रयत्नसे जो वोधको प्राप्त होते हैं-वासुलटते हैं, ज्ञानदर्शनादिका सेवन करनेसे जिनपर बहुत समयके बीतनेपर असर होता है और दृढ़ निश्चय नहीं होनेके कारण जो अपने रत्नत्रयमें वारंवार अतीचार दोप लगाते हैं, वे गुरुकर्मी, तथा व्यवहितमोक्ष हैं, अर्थात् उन्हें शीघ्र मोक्ष नहीं मिलता है। जैसे मध्यम प्रकारकी लकड़ी अच्छे कारीगरके प्रयत्नसे चित्र उकीरनेके योग्य होती है, उसी प्रकारसे ये अच्छे गुरुके प्रयत्नसे योग्यताको प्राप्त होते हैं। भाव रोगोंको नष्ट करनेके लिये इन्हें कष्टसाध्य समझना चाहिये । इनके रागद्वेषादि भावरोग बड़ी कठिनाईसे नष्ट होते हैं। जिन जीवोंको ये सम्यग्दर्शनादि विलकुल अच्छे नहीं लगते हैं, हजारों उपायोंसे योग मिला देनेपर भी जो इन्हें धारण नहीं करते हैं और उपदेश देनेवालोंके साथ भी जो वैर करते हैं, वे महापापी, अभव्य और सर्वथा ही रत्नत्रयरूप औषधिके अयोग्य होते हैं। भावरोगोंको नाश करनेके लिये उन्हें असाध्य समझना चाहिये । हे सौम्य ! भगवान्के चरणोंके प्रसादसे हम जो लक्षण समझे हैं उनसे, तथा जैसा तू अपना स्वरूप कहता है उससे, और हमारे ध्यानमें तेरा जो स्वरूप आया है उससे, जान पड़ता है कि तू कष्टसाध्य जीवोंकी श्रेणीमें है । ऐसी दशामें जबतक खूब ही प्रयत्न न किया जाय, तबतक तेरे रागादि दोषोंका उपशम नहीं हो सकता है । अतएव हे वत्स ! यदि अब भी तुझमें सर्व परिग्रहके त्याग करनेकी शक्ति नहीं है, तो भगवान्के इस विस्तृत शासनमें भावपूर्वक स्थिर रहके सारी आशाओंको छोड़के और हृदयमें गाढ़ी भ
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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