SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकते हैं, तब वे कहते हैं कि, अच्छा, यदि सर्वथा नहीं हो सकता है. तुम्हारी शक्ति नहीं है, तो एकदेश करो* । स्त्री मात्रका सर्वथा त्याग नहीं कर मकते हो, तो पहले परस्त्रीका त्याग करो और म्वत्रीका सेवन करो। अब यहां जो स्वन्त्रीके सेवनका उपदेश है, मो विधिरूप नहीं, किन्तु सर्वथा त्यागके सम्मुख करनेकी सीढ़ीरूप है। परन्तु यदि यही उपदेश सर्वविरतिको पहले वतलाके नहीं किया जावे. पहले स्वस्त्रीके सेवनका ही उपदेश दिया जाय, तो उपदेश देनेवालेको उसकी अनुमोदनाके पापका भागी होना पड़ेगा) इम प्रकारके देशविरतिके पालनको थोड़ेसे परमान्नभक्षणके ममान जानना चाहिये । इम देशविरतिके पालनसे जीवकी विषयोंकी आकांक्षारप भूख कुछ शान्त होती है, रागादि भावरोग क्षीण हो जाते हैं. नानदर्शनके प्राप्त होनेसे अर्गलके समान स्वाभाविक ४आचार्यययं अमृतचन्द्रने इसी विषयमें कहा है, याहुः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जानु प्रहाति । तस्यैकदेशविरतिः कयनीयानेन योजेन ॥ १७ यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ १८ अक्रमकयनेन यतः प्रोत्साहमानोऽति दूरमपि शिष्यः । अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ १९ भाव यह है कि, पारंवार सर्वपिरतिका उपदेश देनेपर भी यदि कोई उसे ग्रहण न करे, तो फिर उसे देशविरतिका उपदेश देना चाहिये । जो मूर्ख यतिध. मंका (सर्वपिरतिका ) उपदेश नहीं देकर गृहस्थधर्मका (देशविरतिका) उपदेश दिताई उसे भगवानके शासनमें दंठ देनेके योग्य बतलाया है। क्योंकि उसके उस क्रमरहित उपदेशसे यहुत दूरतक उत्साहित हुआ भी शिष्य थोड़ेहीमें अर्थात. गृहस्थ धर्ममें ही तृप्त हो जाता है। इस तरह वह शिष्य उस मूर्ख उपदेश. को ठगाया जाता है। [ पुरुषार्थसिद्धपाय ]
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy