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________________ नहीं भासता है, अतएव (धर्मके साथ २ ) काम और अर्थसम्बन्धी कथा कहकर उनका मन आकर्पित किया जाता है। और जब इस प्रकारसे उनका मन आकर्पित हो जाता है, तब फिर वे धर्म ग्रहण करनेमें समर्थ हो जाते हैं । इसलिये विक्षेपद्वारसे अर्थात् उपचारसे संकीर्णकथाको भी सत्कथा कहते हैं। सो यह हमारी 'उपमितिभवमपंचाकथा' यद्यपि शुद्धधर्मका ही कथन करेगी, तथापि धर्मकथाके गुणों की अपेक्षा रखती हुई अर्थात् धर्मकथाके लक्षणको नहीं छोड़ती हुई कहीं २ संकीर्णरूपताको (मिश्रताको ) भी धारण करेगी। अभिप्राय यह है कि, धर्मकथा तो रहेगी ही, पर कहीं २ प्रसंगसे उसमें अर्थ और कामसम्बन्धी विषय भी कहा जावेगा । ___ संस्कृत और प्राकृत ये दोही भाषाएं प्रधानताके योग्य हैं। इनमेंसे पहली जो संस्कृत भाषा है, वह तो दुर्विदग्ध पुरुषोंके ही हृदयमें रहती है। और दूसरी जो प्राकृत भाषा है, वह बालकोंको भी अच्छी तरह समझमें आती है और सुननेमें प्यारी लगती है। इस लिये प्राकृत भाषामें ही यह कथा कहनी चाहिये थी। परन्तु वह प्राकृत भाषा भी उन दुर्विदग्ध पुरुषोंकी समझमें नहीं आती है उन्हें नहीं रुचती है। और यह नीति है कि, "यदि उपाय हो, तो सबका ही चित्त रंजन करना चाहिये ।" इसलिये उनके अनुरोधसे यह कथा संस्कृतमें ही कही जायगी। परन्तु इसकी संस्कृत न तो बड़े २ वाक्योंसे अतिशय गूढ़ अर्थवाली होगी और न, अप्रसिद्ध पर्यायोंसे (शब्दोंसे) कठिन होगी-इससे यह सर्वजनोचित होगी अर्थात् इसे सब कोई अच्छी तरहसे समझ सकेंगे। दुर्विदग्ध भी समझ लेंगे और बालबुद्धि भी समझ लेंगे। * * अभिप्राय यह है कि, हमारी कृतिसे सबको लाभ पहुंचना चाहिये । इस लिये हम इसे सरल संस्कृतमें बनाते हैं । यदि प्राकृतमें बनाते तो बालवुद्धि ते -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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