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________________ १४९ कारणं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानके दाता ज्ञानवान्ः धर्मगुरुओंको वह स्वीकार करता है, तो भी जब तक बारह कपाय उद्रय अवस्थामें रहते हैं, और जबतक नौ नोकपाय प्रवल रहते हैं, तबतक यह जीव अनादि संसारके अभ्यासकी. वासनाके वशमें रहनेके कारण कुभोजनके समान स्त्रीधनविषयादि सम्बन्धी मूर्छाको निवारण नहीं कर सकता है और इससे इसे 'यह संसार एक बड़े भारी अंडेसे उत्पन्न हुआ है, इत्यादि मूर्खताके विकल्प उठा करते हैं। और जो इसे धनादि पदार्थों में परमार्थबुद्धि होनेके कारण मिथ्यादर्शनके उदयसे सहन कुविकल्प होते हैं जिनसे कि यह उन धनधान्यादिकी रक्षा करनेके लिये नहीं शंका करने योग्य गुरु आदिके विषयमें शंका-करता है, वे सब मरदेशकी वालूका मुखचुम्बन करनेके समान तथा जल कल्लोलोंके प्रतिभासके समान हैं। ये विकल्प इनके विरुद्ध अर्थके प्रतिपादन करनेवाले प्रमाणोंसे वाधित होकर सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेके समय नष्ट होते हैं। परन्तु जो धनविपयादिमें मूर्छा लक्षणवाला मोह है, वह कुछ अपूर्व ही है। क्योंकि वह दिशा भूले हुए पुरुषके समान तत्त्ववुद्धिके रहनेपर भी वरावर बना रहता है। इसी मोहसे मोहित होकर यह जीव सत्रको दाभकी अनीपर अटके हुए चंचल जलविन्दुके समान जानता हुआ भी नहीं जानता है, धनका चोरा जाना, स्वजनोंका मरण होना आदि देखता हुआ भी नहीं देखता है, चतुरवुद्धि होकर भी जडवुद्धिके समान चेष्टा करता है और समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता होकर भी महामूर्खचूडामणिके समान वर्तता है। इससे इसे स्वतंत्रता भाती है, स्वेच्छाचारिता रुचती है, व्रतनियमादिके कष्टोंसे डर लगता है, अधिक क्या उस समय यह कौएके मांसका भी त्याग नहीं कर सकता है !.. .
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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