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________________ १५७ मारहीन समझते हैं और अपने शरीरपंजरमें भी जिन्हें कुछ नमल नहीं होता है, उन ज्ञानवान् धर्मगुरु आदि माधुओंके विषयमें पहले ऐसे अनेकवार संकल्प विकल्प किये कि, 'क्या ये टन धर्मकयादिकांसा दोग फैलाकर ठग लेंगे और मेरा सोना नांदी धन आदि सनमुन छीन लेंगे हिः! उन मेरे नीचसे नीच यं विफल्लाको विकार है । यदि ये भगवान् मेरा परमोपकार करने तत्पर न होते, नो मुमतिरूप नगरमें पहुंचनेके सुन्दर और निदार मार्गको बनाते हुए सन्यज्ञानका दान देनेके बहाने मेरी घोर नरकों ने जानेवाली चित्तवृत्तिको न्यों रोकते ? और विपर्यास भावसे मिव्यादर्शनसे) मारी हुई मेरी नित्तवृत्तिको अपनी बुद्धिसे सन्यदर्शन प्राप्त कराके उसके द्वारा सत्र प्रकारके दोपोंसे मुक्त क्यों करते ? ये अपनी अतिशय निगृहनाने मिट्टीके देलेको और मुवर्णको अगर समझनेवाले और पराई भन्लाई करने में इस तरह प्रवृत्त रहनेवाले हैं जैसे कि इन्हें इसका व्यसन हो गया है और जिसका उपकार करने हैं. उससे कभी प्रत्युपकारकी आशा नहीं रखते हैं। हम मरखे लोगों से इन परोपकारी महात्माओंका अपना जीवन देकर भी प्रत्युपकार नहीं किया जा सकता है, फिर धनधान्यादिकी तो बात ही क्या है ?" इस प्रकारसे नव इस जीवको सम्यग्दर्शन होता है, तब यह पहले किये हुए अपने दुरानारोंके स्मरणसे पश्चात्ताप करता है, सन्मार्गके बनलानेवाले गुरुओंपर जो उलटी शंकाएँ होती थी, उन्हें छोड़ देता है और उस समय उपर कहे अनुसार कहता है। जीवके ये विकल्प दो प्रकारके होते हैं । जिनमेंसे एक प्रकारके विकार कुशाग्बोंके मुननेकी वासनासे होते हैं। जैसे यह त्रिभुवन अंडेसे
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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