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________________ अभिप्राय यह है कि, आकाशके उत्पन्न होनेका कोई कारण नहीं है, इसलिये वह सदा ही रहता है अर्थात् नित्य है और शशाके सींग उत्पन्न होनेका कोई कारण नहीं है, इसलिये उसके सींग कभी होते ही नहीं हैं। इसी तरहसे विशेषताएँ यदि विना कारणके हों, तो उन्हें हमेशा एकसी रहना चाहिये, अथवा होनी ही नहीं चाहिये। परन्तु ये विशेषताएँ कहीं होती हैं और कहीं नहीं होती हैं। इससे जान पड़ता है कि, ये सब भेद वा अन्तर निष्कारण नहीं हैं। इनका कोई न कोई कारण अवश्य है।" इस बीचमें अभिप्राय समझकर जीव बोला:--"तो भगवन् ! उक्त विशेषताओंके होनेका क्या कारण है ?"धर्मगुरुने कहाः "हे भद्र! सुनो, जीवों में जो सब प्रकारकी सुन्दर विशेषताएं होती हैं उन सत्रका केवल धर्म ही एक अन्तरंग कारण है । यह पूज्य धर्म ही इस जीवको अच्छे कुलोंमें उत्पन्न करता है, सारे गुणोंका स्थान बनाता है, इसकी सारी क्रियाओंको सफल करता है, प्राप्त हुए भोगोंको निरन्तर भोगने देता है और दूसरे सत्र शुभ विशेपोंको अर्थात् सुखसामग्रियाँको प्राप्त करा देता है । और जीवों में जो सब प्रकारकी असुन्दर विशेषताएं होती हैं-उनका केवल अधर्म ही एक कारण है। यह दुरन्त वा दुप्परिणामी अधर्म ही इस जीवको बुरे कुलों में उत्पन्न करता है, सारे दुर्गुणोंका पात्र बनाता है, इसके सब व्यवसायोंको निष्फल कर देता है, पाये हुए भोगोंके भोगनेमें विघ्न करनेवाली अशक्तता वा दुर्वलता उत्पन्न करता है, और अनन्त प्रकारकी बुरी विशेषताओंका संयोग करा देता है । अतएव जिसके बलसे ये समस्त सम्पदाएं प्राप्त होती हैं, वही धर्म पुरुपार्थ सबसे प्रधान है। धर्मके विना अर्थ और १ जिसका नतीजा सराव हो।. . . - -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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