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________________ १२६ इसलिये इस दुखी जीवको ऐसे अनेक गुणोंवाले दर्शन-ज्ञान-चरित्रका प्रयोग करके मैं अशुभ कर्मोंके जालसे छुड़ा दूं, इस प्रकार धर्माचार्य महारान भी अपने चित्तमें निश्चय करते हैं। आगे कहा है कि "धर्मवोधकरने सलाईकी नौकपर अंजनको लगाकर उस भिखारीकी आँखोंमें उसके इधर उधर बहुत गर्दन हिलानेपर भी आँज दिया, जिससे कि उसे उसी समय अंजनकी सुखदायकतासे शीतलतासे, और अचिन्तनीय गुणोंके संयोगसे चेतना आ गई । इससे उसकी आँखें खुल गई और उनमें जो पीड़ा हो रही थी, वह कुछ शान्त हो गई । तब विस्मित होकर वह विचार करने, लगा कि, यह क्या हो गया ?" इसकी यहांपर इस प्रकार योजना करना चाहिये किःपहले तो यह जीव भद्रक परिणाम धारण करता है, जिनेन्द्र भगवानके धर्ममें रुचि करता है, जिनेन्द्र के विम्वोंको नमस्कार करता है, . साधुओंकी उपासना करता है, धर्म-पदार्थके जाननेकी इच्छा करता है, दानादि करनेमें प्रवृत्त होता है, और धर्मगुरुओंके हृदयमें अपने विषयमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न करता है कि, यह पात्र है । परन्तु पीछे अशुभ कर्मोंके उदयसे धर्मके लम्बे चौड़े उपदेशादिका निमित्त मिल जानेसे पूर्वोक्त भद्रपरिणामोंसे भ्रष्ट हो जाता है । इससे चैत्यालयमें नहीं जाता है, साधुओंकी वस्तिकाओंमें प्रवेश ही नहीं करता है, साधुओंको देखकर भी उनकी वन्दना नहीं करता है, श्रावकोंको आदरपूर्वक नहीं बुलाता है, घरमें जो दानादिक होता है, उसे बन्द कर देता है, धर्मगुरुओंको दूरहीसे देखकर खिसकता है। और उनके पीछे उनकी निन्दा भी करता है। इसे इस प्रकार ज्ञानचेतनासे हीन समझकर धर्मगुरु अपनी बुद्धिरूपी सलाईपर उसके प्रतिबोधित करनेका उपायरूप जो अंजन है, उसको लगाते हैं अर्थात्
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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