SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ परमान्न है। इसका यदि भली भाँति सेवन किया जाय, तो यह सबके सब रोगोंको जड़से उखाड़ देता है, पुष्टि करता है, धीरज बढ़ाता है, बलको प्रकाशित करता है,वर्णका उत्कर्ष करता है, अर्थात् रूपको सुन्दर बनाता है, मनको प्रसन्न करता है, अवस्थाको स्थिर करता है अर्थात् आयु बढ़ाता है, पराक्रमी करता है, और औजित्यको (तेजको ?) बढ़ाता है। अधिक कहनेसे क्या यह अजर अमरपनेको भी समीप करा देता है, इसमें सन्देह नहीं है। तो अब इन तीनों औपधियोंकी भलीभाँति योजना करके मैं इस वेचारेको व्याधियोंसे मुक्त कर दूं-निरोगी बना दूं, यह सिद्धान्त उसने अपने मनमें स्थापित किया ।" ___ धर्माचार्य महाराज भी इस जीवके विषयमें ऐसा ही विचार करते हैं । जब वे इस जीवकी पहलेकी सत्र प्रवृत्तियां देखकर निश्चय करते हैं कि यह जीव भव्य है-केवल प्रबल कर्मोकी कलासे व्याकुल होकर सन्मार्गसे भ्रष्ट हो गया है; तत्र उनके ऐसे परिणाम होते हैं कि, यह इन रोगोंके समान कर्मोंसे कैसे छूटेगा? और इस तरह यथार्थ बातके शोधनेमें चित्तको व्याकुल करते २ और दूर तक सोचते २ वे ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयको ही जो कि विमलालोक आदि तीन औषधियों के समान है भिखारीको कष्टसे छुड़ानेका उपाय समझते हैं, अन्य किसीको नहीं। यहांपर ज्ञानको अंजन समझना चाहिये। क्योंकि यह ज्ञान ही प्रत्येक पदार्थको स्पष्ट रीतिसे दिखलानेके कारण विमलालोक कहलाता है, ज्ञान ही नेत्ररोगोंके समान अज्ञानको नष्ट करता है,और ज्ञान ही 'वीते हुए' 'वर्तते हुए' तथा 'होनेवाले' पदार्थों के स्वरूपको प्रगट करनेवाले विवेकचक्षुओंका सम्पादन करता है । दर्शनको तीर्थका जल समझना
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy