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________________ कल्प इस तरहसे दूर हो जाते हैं, जिस तरह संग्राम भूमिमें भयंकर महायोधाके देखनेसे शत्रुओंसे डरनेवाले मनुष्य भाग जाते हैं। और तव यह जीव मानता है कि, ये महात्मा मुझसे जो कुछ कहते हैं, वह सव युक्तियुक्त है। ये वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी परीक्षा मुझसे बहुत अधिक कर सकते हैं। इससे पूर्वकथामें जो कहा है कि, "धर्मवोधकरको पास आते देखकर वे सबके सब लड़के जो कठिनाईसे भी नहीं रुकते थे, कठोर थे और कष्ट देनेके लिये भिखारीके पीछे लगे हुए थे, भाग गये।" सो उसकी भी योजना हो गई। क्योंकि उक्त कुविकल्प ही दुर्दाते लड़कोंके समान हैं, जो जीवको कष्ट देते हैं और सुगुरुके मिलनेसे ही पीछा छोड़ते हैं। इस प्रकारसे जब इस जीवके सारे कुविकल्प नष्ट हो जाते हैं, तब यह गुरुमहाराजके वचन सुननेकी अभिलाषासे कुछेक उनके सम्मुख होता है । उस समय पराई भलाई करनेका ही जिन्हें व्यसन लगा हुआ है, ऐसे गुरु इसे सन्मार्गका उपदेश देते हुए इस प्रकारसे कहते हैं कि:-"हे भद्र। सुन, इस संसारमें पर्यटन करते हुए इस जीवका धर्म ही अतिशय प्यार करनेवाला पिता है, धर्म ही गाढ़ी प्रीति करनेवाली माता है, धर्म ही आभिन्नहृदय अर्थात् एक सरीखे परिणामोंवाला भाई है, धर्म ही सदा एकसा स्नेह रखनेवाली वहिन है,धर्म ही सारे सुखोंकी खानिअपनेपर अनुरक्त रहनेवाली और गुणवती स्त्री है, धर्म ही विश्वासी, एकरस, अनकूल और सारी कलाओंमें चतुर मित्र है, धर्म ही देवकुमारों सरीखा सुंदर और चित्तको अतिशय आनंदित करनेवाला पुत्र है, धर्म ही अपने शील और सौंदर्य गुणसे जयपताका प्राप्त करनेवाली और कुलकी उन्नति करनेवाली पुत्री है, धर्म ही सदाचारी वन्धुवर्ग है, : १ दुःखसे जिनका अन्त हो सके ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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