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________________ [७७] अनुरूप कुरूप वर के साथ विवाह हो नाना अनुचित नही कहा ना सकता--उस कुरूप के लिये वह कुरूपा ' उचिता' ही है। मतः विवाहयोग्य कन्या 'रूपवती' ही हो ऐसा व्यापक नियम कदापि श्रादरणीय तथा व्यवहरणीय नहीं हो सकता-वह व्यक्तिविशेष के लिये ही उपयोगी पड़ सकता है। इसी तरह पर 'पितृदत्ता' आदि दूसरे विशेषणों की त्रुटियों का भी हाल जानना चाहिये। महारकनी उक्त पध के बाद एक दूसरा पधानिम्न प्रकार से देते हैं: रूपवती स्वजातीया स्वतालचन्यगोत्रजा। भोकुं मोजयितुं योग्या कन्या घाटुम्बिनी । ३६ ॥ यहाँ विवाहयोग्य कन्या का एक विशेषण दिया है 'स्वजातीयाअपनीजातिकी-और यह विशेषण 'सवर्णो का ही पर्यायनाम जान पड़ता है, क्योंकि 'जाति' शब्द 'वर्ण अर्थ में भी प्रयुक्त होता है-आदिपुराण में भी वह बहुधा 'वर्ण' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है.मूल जातियाँ भी वर्ष ही हैं । परन्तु कुछ विद्वानों का कहना है कि यह विशेषण-पद अग्रवाल, खंडेलवाल श्रादि उपजातियों के लिये प्रयुक्त हुआ है और इसके द्वारा अपनी अपनी उपनाति की कन्या से ही विवाह करने को सीमित किया गया है। अपने इस कपन के समर्थन में उन लोगों के पास एक युक्ति भी है और वह यह कि यदि इस पथका भाशय सवर्णा का ही होता तो उसे यहाँ देने की जरूरत ही न होती; क्योंकि भट्टारकनी पूर्वपत्र में इसी प्राशय को 'वर्षविरुद्ध संत्यका' पद के द्वारा व्यक्त कर चुके हैं, वे फिर दोषारा उसी बात को क्यों लिखते ! परन्तु इस युक्ति में कुछ भी दम नहीं है। कहा जा सकता है कि एक पत्र में जो बात एक ढंग से कही गई है वही दूसरे पद्य में दूसरे ढंग से बतलाई गई है। इसके सिवाय, महारानी का सारा ग्रंथ पुनरुक्तियों से भरा हुआ है, वे इतने सावधान नहीं थे जो ऐसी बारी
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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